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सत्य वचन बोलने का ही आग्रह किया? क्यों पाँचों इंद्रियों का निग्रह कर के इंद्रिय संयम करने का उपदेश दिया? शुभ विचार-वाणी एवं व्यवहार से शुभ कर्मों का बंध होता है।
शुभाशुभ कर्मों के फलस्वरूप सुख-दुःख का अनुभव जीवात्मा कषाय से करती है। कषायों का क्षय-नाश हो जाने पर आत्मा में सुख-दुःख की संवेदनाएँ पैदा नहीं होती है। जिस समय प्रकृतिबंध होता है उसी समय रसबंध होता है। सुख-दुःख का अनुभव (मंद, मध्यम, तीव्र) रसबंध पर आधारित होता है। तीव्र अध्यवसाय से यदि शुभ कर्म का बंध किया है तो उस कर्म के उदय समय सुख की संवेदना भी तीव्र होगी, और यदि अशुभ कर्म का बंध तीव्र अध्यवसाय से हुआ है तो फिर दुःख की अनुभूति भी तीव्र होगी।
चेतन, अब ‘स्थितिबंध' को भी समझ ले।
एक चित्रकार भित्ति पर जब चित्रांकन करता है, लाल, पीले, आसमानी और अन्य मिश्रित रंगों से एक सुंदर नयनरम्य चित्रांकन भित्ति पर, या फिर रेक्जीन' पर करता है, वह तूने कभी देखा है क्या? हाँ, हो सकता है, यदि तूने उड़ती निगाहों से चित्र को देख भी लिया हो और चल दिया हो, उस चित्र के निर्माण की गहराइयों में नहीं उतरा हो, उस पर चिंतन नहीं किया हो।
कभी तूने ऐसा सोचा भी है कि ये लाल-पीले रंग दीवार आदि पर ठहरते कैसे हैं? दीवार आदि पर रंगों को दीर्घकाल पर्यंत टिकाने वाला ऐसा कौन सा तत्त्व है? क्या पानी? नहीं, पानी के सहारे रंग दीर्घकाल तक नहीं रह सकते। पानी सूख जाय तो रंग भी उखड़ जाएँ! तो दूसरा कौन सा ऐसा तत्त्व है? श्लेष, सरेश, गोंद! रंगों में यदि श्लेष-सरेश को घोल दिया जाय, और उस रंग से चित्रांकन किया जाय तो वह चित्र
दीवार पर लम्बे अरसे तक बना रहेगा।
आत्मा दीवार है और कर्मपुद्गल रंग हैं। कर्मपुद्गल यों ही आत्मा की दीवार पर नहीं चिपकते। बीच में कोई गोंद चाहिए। वह गोंद है लेश्याएं।
कोई कर्म-पुद्गल आत्मा पर पच्चीस साल तक बने रहते हैं और कोई कर्म - पुद्गल आत्मा के साथ पाँच सौ साल तक जुड़े रहते हैं, इस समय-मर्यादा का निर्धारण-नियंत्रण लेश्याएं करती हैं। लेश्याएं छ: प्रकार की होती हैं। वे दो विभाग में विभाजित हैं - शुभ और अशुभ ।
- कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या अशुभ हैं।
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