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१. ज्ञानावरण कर्म, २. दर्शनावरण कर्म, ३. वेदनीय कर्म, ४. मोहनीय कर्म, ५. आयुष्य कर्म ६. नाम कर्म ७. गोत्र कर्म
८. अंतराय कर्म जीवात्मा अपने मनोयोग से, वचन योग से और काययोग से कर्मों के स्वभाव का - प्रकृति का निर्माण करता है। विशेष रूप से 'मनोयोग' स्वभाव-निर्धारण में कारण होता है।
वैसे तो कर्मबंध में, आठों कर्मों के बंधन में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और योग की सहायता से राग-द्वेष कारण होते हैं। राग-द्वेष के सहायक होते हैं ये मिथ्यात्व वगैरह। इस सहायक मंडल के सहारे राग और द्वेष ने आत्मभूमि को कर्मों का डरावना बीहड़ वन बना रखा है और इस सहायक मंडल के जोर पर तो उनका अस्तित्व टिका हुआ है!
चेतन, मिथ्यात्व वगैरह का थोड़ा परिचय दे दूँ! मिथ्यात्व वगैरह की पहचान करना बहुत आवश्यक है। ___ - सुदेव, सुगुरु और सुधर्म पर राग नहीं करने देता है वह मिथ्यात्व । कुदेव, कुगुरु और कुधर्म पर राग करवाता है यह मिथ्यात्व । जिनोक्त तत्त्वों पर, आत्मा श्रद्धावान न बन जाए, इस बात की पूरी निगरानी यह मिथ्यात्व रखता है।
- रागद्वेष के सहायक मंडल में दूसरा स्थान है अविरति का। किसी जीव को हिंसा-वगैरह पापों को छोड़ने नहीं देती है। कोई व्रत, नियम या प्रतिज्ञा लेने नहीं देती है। हेय का त्याग और उपादेय का स्वीकार करने नहीं देती है। सारे देवलोक पर, समग्र नरक भूमि पर और मानवलोक में इस अविरति का अपना साम्राज्य है! अपना वर्चस्व है।
- प्रमाद का कार्यक्षेत्र व्यापक है। देशकथा, राजकथा, स्त्रीकथा और भोजनकथा, यह प्रमाद करवाता है। भौतिक विषयों का खींचाव-आकर्षण, इस प्रमाद की वजह से है। पाँचों इंद्रियों के साथ प्रमाद ही स्वच्छंद विहार करवाता है। निद्रा तो प्रमाद का प्रमुख कार्य है।
- तन-मन और वचन के माध्यम से कषाय, आठों तरह के कर्मों के बंधन का भगीरथ कार्य करते हैं। गंदे और घिनौने विचार, कर्कश और कडुए बोल...
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