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टिकेगा, उसकी काल-मर्यादा भी निश्चित हो जाती है, उस मीठेपन की मंदता अथवा तीव्रता भी निर्मित हो जाती है और उस दूध में कितने पुद्गल-परमाणु हैं - यह संख्या भी निश्चित हो जाती है।
इसी प्रकार, जब कार्मण पुद्गगल आत्मा के साथ जुड़ कर 'कर्म' बनते हैं, उस समय ‘स्वभाव' वगैरह चार बातें निश्चित हो जाती हैं। पहले मैं तुझे स्वभावप्रकृति की बात करता हूँ | स्वभाव-बंध कहें या प्रकृति-बंध कहें- एक ही बात है।
आत्मा जब 'कार्मण' पुद्गल ग्रहण करती है, वे पुद्गल आठ प्रकार की कर्मप्रकृति में विभाजित हो जाते हैं, विभाजन समान नहीं होता है। कम-ज्यादा होता है।
- कुछ कर्म आत्मा के ज्ञानगुण के घातक स्वभाव के बन जाते हैं, - कुछ कर्म आत्मा के सामान्य बोध के आवारक स्वभाव के बन जाते हैं और
आत्मजागृति में बाधक-स्वभाव के बन जाते हैं, - कुछ कर्म, सुख-दुःख का अनुभव कराने के स्वभाव के बन जाते हैं, - कुछ कर्म, आत्मा को मोहमूढ़ बनाने के स्वभाव के बन जाते हैं, - कुछ कर्म, जीव को निश्चितकाल के लिए उस जन्म के शरीर में बाँधकर
रखने के स्वभाव के बन जाते हैं, - कुछ कर्म, शरीर, शरीर के अवयव, जीव की गति, जाति, यश-अपयश
सौभाग्य-दुर्भाग्य और इंद्रियनिर्माण वगैरह का निर्माण करने के स्वभाव के बन जाते हैं। - कुछ कर्म, जीव की उच्च जाति, नीच जाति का निर्माण करने के स्वभाव
के बन जाते हैं, - कुछ कर्म, दान देने में, भोग भोगने में, प्राप्ति होने में और शक्ति प्राप्ति में
अवरोध करने के स्वभाव के बन जाते हैं। कर्म इस प्रकार, आठ प्रकार के स्वभाववाले बँधते हैं | स्वभाव कहें या प्रकृति कहें - एक ही है। कर्मसाहित्य में 'प्रकृति' शब्द प्रचलित है, इसलिए इसको 'प्रकृतिबंध' कहते हैं।
ऊपर जिस क्रम से कर्म के भिन्न-भिन्न स्वभाव बताए, उस क्रम से उनके आठ नाम प्रसिद्ध हैं -
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