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हैं कि कर्म से ही कर्म बँधते हैं!
कषाय यानी क्रोध, मान, माया और लोभ । क्रोध और मान 'द्वेष' के रूप हैं, माया और लोभ 'राग' के रूप हैं। इस दृष्टि से कषाय को 'राग-द्वेष' भी कह सकते हैं। ये राग-द्वेष, कर्मबंध के प्रमुख हेतु हैं। किसी भी वस्तु या व्यक्ति पर राग किया या द्वेष किया... कि 'कर्मबंध' हो जाता है।
- यदि राग-द्वेष मंद होते हैं तो कर्मबंध मंद होता है, - यदि राग-द्वेष मध्यम होते हैं तो कर्मबंध मध्यम होता है, - यदि राग-द्वेष तीव्र होते है तो कर्मबंध प्रबल होता है।
मंद कर्मबंध से सामान्य फल मिलता है, मध्यम कर्मबंध से मध्यम फल मिलता है, और तीव्र कर्मबंध से भरपूर फल मिलता है। अति मंद राग-द्वेष से बँधे हुए कर्म, कभी फल देते भी नहीं हैं...। इस विषय में अभी मैं विस्तार से नहीं लिखता हूँ| अभी तो 'कर्मबंध' के विषय में तुझे समझाना है। ___ चेतन, जो ‘कार्मण' नाम के पुद्गल जीवात्मा ग्रहण करता है वे कार्मण पुद्गल समग्र लोक (चौदह राज) में भरे पड़े हैं। वैसे औदारिक, वैक्रिय वगैरह पुद्गल भी भरे पड़े हैं। परंतु जीवात्मा उन्हीं पुद्गलों को ग्रहण करता है, जो कार्मण-पुद्गल, जीवात्मा के प्रदेश में होते हैं।
सभी पुद्गल मूर्त-रूपी होते हैं। पुदगल में रूप, रस, गंध और स्पर्श होता है, फिर भी अपन सूक्ष्म कार्मण-वर्गणा के पुद्गलों को देख नहीं सकते हैं। जीवात्मा कार्मण पुद्गलों को ग्रहण करता है... जीव के साथ वे पुद्गल बँधते हैं... वगैरह प्रक्रिया 'ओटोमेटिक' सहजता से होती रहती है। पूर्ण ज्ञानी सर्वज्ञ पुरुष ही इस प्रक्रिया को प्रत्यक्ष देख सकते हैं।
जीवात्मा के साथ जुड़ते ही वे 'कार्मण पुद्गल' 'कर्म' कहलाते हैं। उन कर्मों में, बँधते ही चार बातों का निर्माण हो जाता है। १. स्वभाव (प्रकृति) २. कालमर्यादा (स्थिति) ३. फलानुभव कराने वाली शक्ति (रस) और ४. कर्मपुद्गलों की संख्या (प्रदेश).
यह बात एक दृष्टांत से तुझे बताता हूँ -
एक गाय घास खाती है। घास में से दूध बनता है। जिस समय घास में से दूध बनता है उस समय उस में मीठेपन का स्वभाव आता है, मीठापन कब तक
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