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प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला। आनंद।
अग्निभूति की बुद्धि का ही मात्र समाधान नहीं था, समाधान था उसकी संपूर्ण आत्मा का | उनकी आत्मा के किसी एक प्रदेश में भी 'कर्म' के विषय में शंका रही नहीं थी। 'प्रभु के चरणों में ही समाधान मिल सकता है... समाधान से ही शांति है, समाधान में ही भीतर का सुख है। इसलिए उन्होंने अपना समग्र जीवन ही समर्पित कर दिया परमात्मा के चरणों में। अनंत जन्मों में जितनी भी शंकाएँ संचित की थी, सभी शंकाओं के समाधान पा लिए और वे एक दिन सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो गए।
चेतन, 'कर्मसिद्धांत' के माध्यम से 'समाधान' पाने के लिए, उस सिद्धांत को अच्छी तरह समझ लेना आवश्यक है। आज मैं तुझे 'कर्मबंध' के विषय में कुछ लिखता हूँ।
आत्मा कर्मबंध चार प्रकार से करती है। (१) प्रकृतिबंध, (२) प्रदेशबंध, (३) स्थितिबंध, (४) रसबंध
'प्रकृतिबंध' और 'प्रदेशबंध' होता है 'योग' यानी मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से । कर्मसिद्धांत में जहाँ-जहाँ 'योग' शब्द का प्रयोग हुआ है, मन-वचन और काया की प्रवृत्ति के अर्थ में हुआ है।
स्थितिबंध और रसबंध होता है 'कषाय' से । 'कषाय का अर्थ है क्रोध, मान, माया और लोभ ।
तात्पर्य यह है कि कर्म के स्वभाव का निर्माण और कर्मपुद्गल की संख्या का परिमाण 'योग' के माध्यम से होता है। आत्मा के साथ कर्मबंधन
के काल-समय का निर्णय और कर्मों की तीव्र अथवा मंद फल (प्रभाव) देने की शक्ति की निर्मिति 'कषाय' के माध्यम से होती है।
चेतन, यह 'योग' और 'कषाय' प्रत्येक आत्मा के साथ संलग्न होते ही हैं। अलबत्त, ये योग और कषाय भी 'कर्म' से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए कह सकते
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