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होते ही हैं । गुणरहित कोई भी जीवात्मा नहीं होता है, कोई भी मनुष्य नहीं होता है। गुण देखने के लिए गुणदृष्टि चाहिए। दोषदृष्टि होगी तो दोष ही दिखाई देंगे।
गुणदर्शन कर, गुणों के अनुरागी बनना । 'उच्चगोत्र' बाँधने का यह असाधारण हेतु है। 'उच्चगोत्र' कर्म, मोक्षमार्ग की आराधना करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
२. जो मनुष्य मदरहित होता है, अभिमानरहित होता है, वह उच्चगोत्र बाँधता है। किसी भी बात का अभिमान-अहंकार नहीं करना है। उच्च जाति का, उच्च कुल का, महान बल का, श्रेष्ठ प्राप्ति का, प्रगल्भ बुद्धि का, श्रेष्ठ ज्ञान का, अद्भुत लोकप्रियता का... कभी अभिमान नहीं करना है। सदैव नम्र बने रहना है । उच्च जाति वगैरह होने पर भी अहंकार नहीं करना है। सावधान रहना है।
३. 'उच्चगोत्र' बाँधने का तीसरा हेतु है : धर्म-अध्यात्म के ग्रंथों का अध्ययन करते रहना, अध्यापन कराते रहना । बहुत अच्छा हेतु है यह | धर्म, योग, अध्यात्म वगैरह आत्म विशुद्धि करने के शास्त्रों का अध्ययन करते रहो... अध्यापन (पढ़ाना) कराते रहो... उच्चगोत्र-कर्म बँधता रहेगा। सारे धर्मग्रंथ चार विभागों में विभाजित हैं : द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और कथानुयोग । जो अनुयोग तुझे प्रिय हो, उस अनुयोग के ग्रंथ पढ़ते रहो। दूसरों को जो अनुयोग पढ़ा सकते हो, पढ़ाते रहो।
४. चौथा हेतु है : जिनेश्वर भगवंतो की निष्काम भक्ति। परमात्म भक्ति से उच्च गोत्र बँधता है। भक्ति का लक्ष्य ‘कर्मबंध' नहीं रखना है | भक्ति का लक्ष्य तो 'कर्मक्षय' करने का है। परंतु भक्ति करने से उच्चगोत्र स्वाभाविकता से बँध जाएगा।
५. पाँचवा हेतु है : सिद्ध भगवंतों का भक्तिपूर्ण हृदय से ध्यान करना । चेतन, शायद तू सिद्ध भगवंत का ध्यान नहीं करता है। अब करना। वैसे तो सिद्धों का ध्यान करने से ज्यादा कर्मक्षय ही होता है। परंतु साथ साथ 'उच्चगोत्र' भी बँधता है।
६. छट्ठा हेतु है : साधर्मिकों की सेवा में निरत रहना । उच्चगोत्र बाँधने का यह हेतु भी महत्वपूर्ण है। दुःखी साधर्मिकों का उद्धार करना है और सभी साधर्मिकों की भक्ति करना है। परंतु भक्ति प्रीतिपूर्वक होनी चाहिए। साधर्मिकों के
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