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ATTI
पत्र :
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प्रिय चेतन, धर्मलाभ, परमात्मा की परम कृपा से कुशलता है। तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ।
चार गतियों के आयुष्य कर्म बाँधने के हेतु जानकर तू गहन-गंभीर विचारों में डूब गया..., मालूम हुआ। स्वाभाविक है, अज्ञानदशा में जीव कैसे-कैसे पाप कर्म बाँध लेता है - यह अब ज्ञात होता है । ज्ञानदृष्टि खुलने पर भूतकाल की भूलों का ज्ञान होता है। अब उन भूलों को दोहराना नहीं है।
चेतन आज तुझे ‘गोत्र कर्म' के बंध हेतु लिखता हूँ।
गोत्र कर्म के दो प्रकार हैं : उच्च गोत्र और नीच गोत्र । पहले मैं उच्च गोत्र कर्म के बंध हेतु बताता हूँ।
- जो मनुष्य गुणग्राही, गुणानुरागी होता है, - जो मनुष्य मदरहित, निराभिमानी होता है, - जो मनुष्य अध्ययन-अध्यापन में लीन रहता है, - जो मनुष्य जिनेश्वरदेवों का भक्त होता है, - जो मनुष्य सिद्ध भगवंतों का ध्याता होता है, - जो मनुष्य साधर्मिकों की सेवा में रत होता है,
वह 'उच्चगोत्र-कर्म' बाँधता है। वैसे तो ये बंधहेतु समझ में आ जाय वैसे हैं, फिर भी कुछ विशेष स्पष्टीकरण करता हूँ।
१. पहली बात बहुत ही महत्वपूर्ण है। गुणदर्शन करते रहो और
गुणानुरागी बनते रहो! यदि आनेवाले जन्मों में उच्च-खानदान कुल में जन्म पाना है, अच्छे सदाचारी, संस्कारी और धार्मिक माता-पिता के कुल में जन्म पाना है, तो गुणदृष्टा बनना होगा।
दूसरे जीवों के गुण ही देखने के हैं। दोष नहीं देखने हैं | जीवों में अनंत दोष होने पर भी दोष नहीं देखने हैं। एक बात याद रखना कि प्रत्येक जीवात्मा में गुण
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