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साथ कभी भी तिरस्कारपूर्ण व्यवहार नहीं करना। उनकी उपेक्षा कभी नहीं
करना।
उच्चगोत्र के ये ६ बंध हेतु हैं। नीच गोत्र कर्म बाँधने के इनसे विपरीत ६ हेतु हैं :
१. दूसरे जीवों के दोष देखने से, दोषानुवाद करने से नीचगोत्र बँधता है। चेतन, यह बात तो कितनी व्यापक हो गई है। दूसरे जीवों के ज्यादातर दोष ही देखे जाते हैं और चर्चा भी दोषों की ही चलती रहती है। परिणाम आता है नीचगोत्र बँधने में, इसलिए दूसरों के दोष देखना ही नहीं। दोष देखने हों तो स्वयं के ही देखना । अपने में क्या कम दोष हैं? अनंत दोष हैं। जब तक अपने दोष दूर नहीं होते हैं, तब तक दूसरों के दोष देखने का, बोलने का अपना अधिकार नहीं है।
२.अभिमान करना, अहंकार करना, नीच गोत्र बाँधने का महत्वपूर्ण हेतु है। जिस बात का तुझे अभिमान होगा, वह बात जिसमें नहीं होगी, उसके प्रति तू तिरस्कार करेगा। अहंकार और तिरस्कार - ऐसा नीचगोत्र बंधवाता है कि जो करोड़ भव तक भोगना पड़ता है। ऐसे हीन और दरिद्र परिवारों में जन्म मिलता है, जहाँ लोगों को घोर तिरस्कारअपमान सहन करने पड़ते हैं।
३. नीच गोत्र कर्म बाँधने का तीसरा हेतु है पढ़ना नहीं, पढ़ाना नहीं। पढ़ने के साधन होने पर भी, पढ़ानेवाले सद्गुरु का संयोग मिलने पर भी, जो प्रमाद से, आलस्य से पढ़ता नहीं है, वह नीच गोत्र बाँधता है। वैसे, दूसरों को पढ़ाने का ज्ञान और बुद्धि होने पर भी, प्रमाद से जो नहीं पढ़ाता है, वह भी नीचगोत्र कर्म बाँधता है।
४. जो मनुष्य परमात्मतत्त्व के प्रति प्रेम धारण नहीं करता है, उनकी भक्ति नहीं करता है, उनके अस्तित्व का जो विरोध करता है, वह भी नीचगोत्र बाँधता
५. जो मनुष्य सिद्धभगवंतों के प्रति प्रेम नहीं रखता है, उन का ध्यान नहीं करता है, स्मरण नहीं करता है और सिद्धों के अस्तित्व को नहीं मानता है, वह नीच गोत्र बाँधता है।
६. जो मनुष्य साधर्मिक (जैन धर्म को माननेवाले) भाई-बहनों के साथ
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