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पत्र:
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प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। स्थिर-अस्थिर नामकर्म का बोध तेरा स्पष्ट हुआ, जानकर खुशी हुई। तेरा नया प्रश्न निम्न प्रकार है - 'किसी मनुष्य के या पशु के कुछ शारीरिक अवयव अच्छे हैं, कुछ अवयव अच्छे नहीं लगते। कुछ शुभ लगते हैं, कुछ अशुभ लगते हैं, ऐसा क्यों होता है?'
चेतन, सामान्य रूप से मनुष्य के शरीर का नाभि से ऊपर का भाग और आगे का भाग शुभ गिना जाता है। जीभ, कान, नाक, आँख वगैरह इंद्रियाँ और मुख, वक्षस्थल, मस्तक वगैरह ज्यादा उपयोगी एवं आकर्षक दिखते हैं। वैसे पशुओं के भी मुख, सँढ़, सींग वगैरह अवयव अच्छे लगते हैं। इस प्रकार शरीर के जो अंगउपांग अच्छे लगते हैं, सुंदर लगते हैं, वह 'शुभ-नामकर्म' की देन है।
एक बात समझना कि सुंदर या अनाकर्षक अवयव उत्पन्न करने का काम शुभ-अशुभ नामकर्मों का नहीं है, परंतु इन दो कर्मों के प्रभाव से शरीर के अवयव शुभ-अशुभ लगते हैं। शरीर के अवयव मिलते हैं 'अंगोपांग नामकर्म' के उदय से। एवं 'निर्माण-नाम कर्म' के प्रभाव से अंगोपांग योग्य स्थान पर नियुक्त होते हैं। परंतु 'यह अवयव अच्छा लगता है, यह अवयव अच्छा नहीं लगता...' ऐसा अनुभव शुभ-अशुभ नाम कर्म के हिसाब से होता है।
नाभि से नीचे के अवयव मलाशय, मूत्राशय, गर्भाशय... एवं पाँच आदि
अवयव अशुभ माने गए हैं। 'अशुभ नामकर्म' के प्रभाव से ये अवयव अशुभ माने जाते हैं। यह एक साधारण नियम है। इस में अपवाद भी हो सकते हैं। वैसे पैर अशुभ माने जाते हैं, परंतु पूज्य और महान पुरुषों के चरणों की पूजा की जाती है! वैसे किसी के पैरों का स्पर्श होता है तो अच्छा नहीं लगता हैं, परंतु साधु संतों का चरणस्पर्श अच्छा लगता है! वैसे, किसी व्यक्ति के पाँव अच्छे दिखते हैं! यह भी 'शुभ-नामकर्म' का प्रभाव है। शरीर के जो भी अवयव दूसरों को अच्छे लगते हों, वह शुभ नामकर्म का
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