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शरीर के कुछ अवयवों में स्थिरता और कुछ अवयवों में अस्थिरता होती है, यह स्थिर नामकर्म के कारण होती है।
यदि ये दो कर्म नहीं होते तो शरीर या तो पूर्ण रूपेण कड़ा सख्त होता, अथवा सर्वथा लचीला-लोंदे जैसा होता | इन दो कर्मों की वजह से ही शरीर का सौष्ठव होता है। जो अवयव स्थिर होने चाहिए वे स्थिर होते हैं, जो अवयव लचीले चाहिए, वे लचीले होते हैं - तो शरीर सुंदर दिखता है। शरीर-सौष्ठव बनता है।
चेतन, शरीर के अवयवों की स्थिरता-अस्थिरता के ये दो कर्म मूल कारण हैं। निमित्त कारण अनेक हो सकते हैं। निमित्त कारण कुछ पाप कर्म के उदय हो सकते हैं, कोई औषध-प्रयोग हो सकते हैं, कोई मंत्र-प्रयोग भी हो सकते हैं। किसी शत्रु का शस्त्र प्रहार भी हो सकता है। कुछ दृष्टांतों से यह बात समझाता
- किसी शत्रु ने मुँह पर प्रहार कर दिया और दाँत गिरा दिए । - दाँतों में रोग हुआ, दाँतों में पीब हो गया, खून आने लगा और दाँत हिलने
लगे... गिरने लगे, - 'बोन-टी.बी.' हो गया, हड्डियों में सड़न पैदा हुई और हड्डियाँ गलने
लगी, - किसी ने प्रहार किया और हड्डी टूट गई, - किसी ने मंत्र-प्रयोग किया और पूरा शरीर अकड़ गया, स्तब्ध हो गया, - किसी ने औषध-प्रयोग किया और पलकें स्थिर हो गई, - कोई अशातावेदनीय कर्म का उदय हुआ और रीढ़ की हड्डी टूट गई...
मेरुदंड टूट गया,
चेतन, ऐसी अनेक घटनाएँ मनुष्य के शरीर में घटती हैं, उस समय अज्ञानी मनुष्य निमित्त कारणों के प्रति रोष-द्वेष करता है, और घोर आर्तध्यान में, रौद्रध्यान में फँस जाता है। जब कि कर्मसिद्धांत को समझनेवाला प्राज्ञ पुरुष, निमित्त कारणों के प्रति कभी रोष नहीं करेगा। वह मूल कारण समझता है।
'मेरे शरीर के साथ ये सारी घटनाएँ जो घट रही हैं, उनका मूल कारण कर्म हैं। मुझे कर्मों के प्रति रोष कर, कर्मों का नाश करने का पुरुषार्थ करना चाहिए।'
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