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पत्र:
प्रिय चेतन, धर्मलाभ, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ। 'प्रत्येक' और 'साधारण' जीवों के विषय में गत पत्र में पढ़कर तुझे बहुत खुशी हुई - जानकर मुझे संतोष हुआ। इस विषय में विशेष ज्ञान प्राप्त करने के लिए 'लोक प्रकाश' का पाँचवा सर्ग पढ़ना चाहिए।
चेतन, तेरा नया प्रश्न निम्न प्रकार है : 'शरीर में कुछ अवयव रबड़ की तरह ढीले होते हैं, जैसे जिह्वा, कुछ अवयव स्तंभ की तरह स्थिर होते हैं, मुड़ते नहीं हैं, तो शरीर के अवयवों की रचना भी क्या कर्मप्रेरित होती है?
चेतन, समग्र शरीर की रचना कर्मजन्य है! जब कर्म नहीं रहेंगे तब शरीर नहीं रहेगा। जब शरीर ही कर्मजन्य है, तब शरीर के अवयव भी कर्मजन्य ही होने चाहिए । शरीर के प्रत्येक अवयव की रचना, भिन्न-भिन्न कर्म प्रकृति से होती है। यह बात 'नाम कर्म' की प्रकृतियों के कार्यों से तुझे मालूम हो गई हैं। शरीर के एक-एक अवयव के नियामक अलग-अलग कर्म है। जिस शारीरिक अवयव का जो कर्म नियामक होगा, वही कर्म उस अवयव को देखता है।
शरीर में जो दाँत होते हैं, जो हडिडयाँ होती हैं, उनका नियमन 'स्थिरनामकर्म' करता है। दाँत स्थिर रहते हैं, हड्डियाँ स्थिर रहती हैं, झुक नहीं जाती हैं, उनमें लचीलापन नहीं होता है..., यह स्थिर नामकर्म का कार्य होता है। शरीर के अवयवों में स्थिरता और दृढ़ता लाने का काम इस कर्म का होता है। यह कर्म जितना शक्तिशाली होगा, दाँत वगैरह ___ उतने ही दृढ़ रहेंगे। यह कर्म का काल जितना लंबा होगा, दाँत वगैरह दीर्घकाल पर्यंत मजबूत रहेंगे। - कोई मनुष्य कहता है : 'मेरे दाँत इतने मजबूत हैं कि मैं पूरी सुपारी चबा
जाता हूँ। मेरे दांतों से मैं कार या ट्रक को खींचकर ले जा सकता हूँ।' यह स्थिर-नाम कर्म का कार्य है।
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