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पुद्गलों को ग्रहण करता है और गृहीत पुद्गलों को आहार आदि रूप में परिणत करता है। ऐसी शक्ति जीव में पुद्गलों के उपचय से बनती है। अर्थात जिस प्रकार पेट के भीतर वर्तमान पुद्गलों में एक तरह की शक्ति होती है, जिससे कि खाया हुआ आहार भिन्न-भिन्न रूप में बदल जाता है, इसी प्रकार जन्मस्थान-प्राप्त जीव के द्वारा गृहीत पुद्गलों से ऐसी शक्ति बन जाती है, जो कि आहार आदि पुद्गलों को खल-रस आदि रूप में बदल देती है। वही शक्ति पर्याप्ति है।
पर्याप्तिजनक पुद्गलों में से कुछ तो ऐसे होते हैं जो कि जन्मते ही जीव प्रथम समय में ही ग्रहण करता है।
चेतन, 'पर्याप्ति' के विषय में मैंने पहले तुझे ३८ वे पत्र में लिखा है। पर्याप्तिओं की वहाँ परिभाषायें भी लिखी हैं, इसलिए यहाँ इस पत्र में नहीं लिखता हूँ।
चेतन, एक बात समझ लेना कि सभी जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण करते ही हैं। जो जीव स्वयोग्य पर्याप्ति पूर्ण किए बिना मर जाते हैं, वे 'लब्धि-अपर्याप्त' जीव कहलाते हैं। ऐसा जो होता है वह 'अपर्याप्त-नामकर्म' के उदय से होता है।
अब पर्याप्त-अपर्याप्त के कुछ भेद बताता हूँ। - स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण किए बिना ही जो जीव मर जाते हैं वे 'लब्धिअपर्याप्त' कहलाते हैं। ___ - चाहे पर्याप्त नाम कर्म का उदय हो या अपर्याप्त-नामकर्म का उदय हो, पर जब तक करणों की (शरीर-इंद्रिय आदि की) समाप्ति न हो तब
तक जीव 'करण अपर्याप्त' कहा जाता हैं। ___ - जिन को पर्याप्त-नामकर्म का उदय हो और इससे जो स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करने के बाद ही मरते हैं, पहले नहीं, वे 'लब्धिपर्याप्त' कहे जाते हैं। ___- आहार-पर्याप्ति बन चुकने के बाद, कम से कम शरीर पर्याप्ति बन जाती है, तभी से जीव 'करण-पर्याप्त' माने जाते हैं। करण-पर्याप्त जीवों के लिए यह नियम नहीं है कि वे स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण कर के ही मरते हैं।
लब्धि-अपर्याप्त जीव भी कम से कम आहार, शरीर, और इंद्रिय इन तीन पर्याप्ति को पूर्ण किए बिना मरते नहीं। 'लोकप्रकाश' के तीसरे सर्ग-श्लोक ३१ में लिखा गया है - जो जीव लब्धि-अपर्याप्त हैं, वह भी पहली तीन पर्याप्तियों को
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