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नहीं। पर जिस समय जीव अपने सभी आवरणों को मिटा देता हैं, उस समय उसकी सभी शक्तियाँ पूर्ण रूप में प्रकाशित हो जाती हैं। फिर जीव और शिव में विषमता किस बात की? विषमता का कारण औपाधिक कर्म हैं। उन कर्मों का नाश होने पर भी विषमता बनी रहती है तो फिर मुक्ति का क्या प्रयोजन? विषमता संसार तक ही परिमित है, आगे नहीं। इसलिए कर्मवाद के अनुसार यह मानने में कोई आपत्ति नहीं कि सभी मुक्त जीव ईश्वर ही हैं।
'ईश्वर एक ही है' - ऐसा बोलना उचित नहीं है। सभी आत्मा तात्त्विक दृष्टि से ईश्वर ही हैं। मात्र कर्मबंधनों की वजह से वे छोटे-बड़े देखे जाते हैं।
तीनों आक्षेप के समाधान लिखे हैं। तू सोचना। तेरे मन का समाधान हो जाएगा। दूसरों का समाधान भी तू कर पाएगा।
कर्मवाद को नहीं माननेवालों के जीवन में जब विशेष प्रमाण में शारीरिक, मानसिक अथवा आर्थिक विघ्न आते हैं तो वे लोग चंचल हो जाते हैं, घबड़ाकर दूसरों को दूषित ठहराते हैं और उनको कोसते हैं। इस तरह विपत्ति के समय, एक तरफ बाहरी दुश्मन बढ़ जाते हैं और दूसरी तरफ बुद्धि अस्थिर बन जाती है। बुद्धि अस्थिर बन जाने से मनुष्य को अपनी भूल महसूस नहीं होती है। व्यग्रता के कारण मनुष्य दिशाशून्य बन, भटक जाता है।
इसलिए उस विपत्ति के समय मनुष्य को कोई एक सही सिद्धांत का सहारा चाहिए। जिससे उनकी बुद्धि स्थिर हो। स्थिर बुद्धि से वह सोच सकता है कि उपस्थित विघ्न का मूल कारण क्या है? जहाँ तक बुद्धिमानों ने विचार किया है, यही पता चला है कि ऐसा सिद्धांत 'कर्मवाद' ही है।
कर्मवादी मनुष्य को विश्वास होना चाहिए कि 'चाहे मैं जान सकूँ या नहीं, लेकिन मेरी आपत्तियों का भीतरी और असली कारण मुझ में ही है।'
मनुष्य को किसी भी काम की सफलता के लिए परिपूर्ण हार्दिक शांति प्राप्त करनी चाहिए। वैसी शांति कर्मसिद्धांत से ही प्राप्त हो सकती है। आँधी और तूफान में जैसे हिमालय का शिखर स्थिर रहता है वैसे ही अनेक प्रतिकूलताओं के समय शांत भाव से स्थिर रहना, मनुष्य के लिए आवश्यक है। ऐसी स्थिरता कर्मसिद्धांत पर विश्वास करने से प्राप्त होती है।
'कर्मसिद्धांत' की श्रेष्ठता के संबंध में डॉ. मेक्समूलर के विचार को प्रस्तुत कर पत्र समाप्त करता हूँ:
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