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से बनते रहते हैं।
जैसे, मिट्टी, पत्थर आदि वस्तुओं का इकठ्ठा होने पर छोटे-बड़े पहाड़ बन जाते हैं। इधर-उधर से पानी का प्रवाह मिल जाने से नदी बन जाती है। भाप पानी बनकर बरसता है और फिर पानी भाप बन जाती है। ___ इसलिए ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानना आवश्यक नहीं है। फिर भी मानोगे तो प्रश्न है - ईश्वर को किसने बनाया? ईश्वर को अनादि कहोगे न? तो फिर सृष्टि को ही अनादि मानना चाहिए।
अब दूसरे आक्षेप का समाधान करता हूँ। प्राणी जैसा कर्म करते हैं वैसा फल उनको कर्म द्वारा ही मिल जाता है। कर्म जड़ है और प्राणी अपने किए बुरे कर्म का फल नहीं चाहता, यह बात ठीक है, पर यह बात भी समझना है कि जीव के संग से कर्म में भी शक्ति पैदा हो जाती है, जिससे वह अपने अच्छे बुरे विपाकों को नियत समय पर जीव में प्रगट करता है। कर्मवाद यह नहीं मानता है कि चैतन्य के संबंध के बिना ही जड़ कर्म अपना प्रभाव दिखाता है। वह इतना ही कहता है कि फल देने के लिए ईश्वर रूप चैतन्य की प्रेरणा मानने की कोई ज़रूरत नहीं है। क्यों कि सभी जीव चेतन हैं! वे जैसा कर्म करते हैं, उसके अनुसार फल मिल जाता है, वह फल चाहता हो या नहीं चाहता हो! कर्म करना एक बात है, फल को चाहना-नहीं चाहना दूसरी बात है। नहीं चाहने से, किए हुए कर्मों का फल मिलने से रुक नहीं सकता है। सामग्री इकठ्ठी हो जाने पर, कार्य आप ही आप होने लगता है।'
एक दृष्टांत से यह बात समझाता हूँ चेतन! ___ एक मनुष्य धूप में खड़ा है। वैशाख महीना है। गर्म वस्तु खाता है और चाहता है कि प्यास नहीं लगे! क्या किसी तरह प्यास रुक सकती है? कर्मवादी कहते हैं कि कर्म करते समय परिणामानुसार जीव में ऐसे
संस्कार पड़ जाते हैं कि जिन से प्रेरित होकर जीव कर्मफल को आप ही भोगते हैं और कर्म उन पर अपने फल को आप ही प्रगट करते हैं।
चेतन, अब तीसरे आक्षेप का समाधान देता हूँ।
ईश्वर चेतन है और जीव भी चेतन, फिर उनमें अंतर ही क्या है? हाँ, अन्तर है तो इतना ही है कि जीव की सभी शक्तियाँ आवरणों से घिरी हुई हैं, ईश्वर की
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