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चलता है। - ज्योतिष चक्र की दक्षिण दिशा में मूल नक्षत्र चलता है, और सब से उत्तर
में अभिजित नक्षत्र चलता है। - मनुष्य क्षेत्र में मेरूपर्वत से ११२१ योजन दूर और अलोक से लोक में ११११ योजन भीतर, ज्योतिष के विमान अनुक्रम से चलते हैं। कुछ विमान स्थिर रहते हैं। यानी अलोक से ११११ योजन लोक के भीतर जो विमान ज्योतिष चक्र के होते हैं, वे स्थिर होते हैं, कभी नहीं चलते हैं। - चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारों की गति अनुक्रम से शीघ्र होती है, परंतु
समृद्धि क्रमशः कम होती है। - चन्द्र के विमान को वहन करनेवाले देव १६००० होते हैं। - सूर्य का विमान वहन करनेवाले देव भी १६००० होते हैं। - ग्रह के विमान वहन करनेवाले देव ८००० होते हैं। - नक्षत्र के विमान वहन करनेवाले देव ४००० होते हैं। - तारा के विमान वहन करनेवाले देव २००० होते हैं। जो देव इन विमानों को वहन करते हैं वे देव - पूर्व दिशा में सिंह का रूप लेकर वहन करते हैं। - दक्षिण दिशा में हाथी का रूप लेकर वहन करते हैं। - पश्चिम दिशा में बैल का रूप लेकर वहन करते हैं। - उत्तर दिशा में अश्व का रूप लेकर वहन करते हैं। - ज्योतिष चक्र के जो विमान 'लवण समुद्र' में हैं वे विमान उदकस्फटिक
रत्न के होते हैं। जंबू द्वीप और घातकी खंड की वेदिका से ९५ हजार योजन तक 'गोतीर्थ आया हुआ है। भूमि के अत्यंत उतार भागवाले प्रदेश को ‘गोतीर्थ' कहा गया है। उन दोनों के बीच लवण समुद्र की शिखा १० हजार योजन चौड़ी और १६ हजार योजन ऊँची है। उस पानी की शिखा में ९०० योजन तक ज्योतिष विमान चलते हैं। परंतु उदक स्फटिक रत्नों के प्रभाव से पानी फट जाता है, इसलिए विमानों में पानी भर जाता नहीं है और विमानों के तेज में न्यूनता आती नहीं है। - ‘राहु' के दो प्रकार हैं: १. ध्रुव राहु २. पर्व राहु.
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