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पत्र:
प्रिय चेतन, तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ।
तेरी जिज्ञासाएँ मेरे चिंतन को विशद बनाती है। इसलिए तू निश्चित बन तेरी जिज्ञासाएँ लिखते रहना। मैं मेरे क्षयोपशम के आधार पर समाधान करने का प्रयत्न करता रहूँगा।
तेरा नया प्रश्नः
'कल रात में ज्योतिष चक्र के विषय में चिंतन चला। पहला प्रश्न तो मन में यह पैदा हुआ कि सूर्य हजारों योजन दूर है, फिर भी यहाँ इतनी गरमी लगती है, तो सूर्य स्वयं कितना गरम होगा?
चन्द्र, तारा वगैरह चमकते हैं, फिर भी गरमी नहीं लगती है, उससे तो शीतलता महसूस होती है, ऐसा क्यों? मैं यह समझता हूँ कि चंद्र, तारा वगैरह चमकीले हैं, इसलिए वे उष्ण होने चाहिए!'
चेतन, सूर्यलोक का वह विमान देदीप्यमान स्फटिकमय पृथ्वीकाय का है। उस विमान को यदि स्पर्श किया जाय तो वह शीतल लगता है। परंतु जैसे-जैसे उसकी किरणें दूर जाती हैं वह गरमी पैदा करती है। स्वयं शीतल होते हुए दूरदूर वह सूर्य गरमी देता है। यह 'आतप-नाम कर्म' का प्रभाव है। यह कर्म मात्र सूर्यविमान के पृथ्वीकाय जीवों से ही संबंध रखता है, और किसी से भी नहीं।
अग्नि उष्ण लगती है, उसकी गरमी भी लगती है, परंतु उन अग्निकाय जीवों को आतप नाम कर्म नहीं होता है। अग्नि को उष्ण-स्पर्श-नाम कर्म का उदय होता है और उग्र रक्त वर्ण नाम-कर्म का उदय होता है। इसकी वजह से उसका उष्ण प्रकाश फैलता है।
जैनागमों में सूर्य-चन्द्र-ग्रह-नक्षत्र और तारा के विषय में विस्तार से बताया गया है। इन सूर्य-चंद्रादि का समावेश ज्योतिष-चक्र में किया गया है। इन पाँचों में देवों का निवास बताया गया है। हमें आकाश में जो सूर्य-चन्द्र आदि दिखाई देते हैं वे सूर्य चन्द्रादि के विमान (निवास स्थान) होते हैं। सूर्य-चन्द्रादि की पृथ्वी होती है। उन विमानों में देव-देवियों के निवास होता है। सूर्य की किरणें जो पृथ्वी
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