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पास जाते हैं। वृक्ष की जो डाली उनको लगी थी, उस डाली को तोड़कर वे उपाश्रय में ले आए। द्वार पर ही डाली को डालकर वे सो गए। प्रभात में उस साधु को रात्रि की घटना मात्र स्वप्न लगा। उन्होंने गुरु को कहा। गुरु ने डाली को उपाश्रय के आगे पड़ी हुई देखी और उस साधु के कपड़े फटे हुए देखे। हाथ छिले हुए देखे । मालूम हो गया कि 'इस साधु को 'थीणद्धि' निद्रा का उदय है। उसका साधु वेश ले लिया गया।
चेतन, इन पाँच दृष्टांतों में हाथी के दाँत तोड़कर लानेवाले साधु का दृष्टांत, आचार्य श्री देवेन्द्रसूरिजी ने 'कर्मविपाक' नाम के कर्मग्रंथ की टीका में भी दिया हुआ है। ये पाँचों दृष्टांत साधुओं के दिए गए हैं। उनका नाम वगैरह बताया नहीं है। परंतु इन दृष्टांतों से दो बात फलित होती हैं:
१. तीव्र लोभ और उग्र क्रोधवाली निद्रा, 'थीणद्धि' निद्रा में निमित्त बनती है।
२. थीणद्धि निद्रा के उदयवाले यदि साधु हों, तो गुरु अथवा संघ उसका साधु वेश लेकर उसको रवाना कर सकता है।
दो बातों में से पहली बात ज्यादा महत्वपूर्ण है। सोने से पूर्व मनुष्य को क्रोध को उपशांत कर के सोना चाहिए। तीव्र लोभ की इच्छा को दूर कर के सोना चाहिए। ज्ञानी पुरुषों ने, हम साधु-साध्वी को संथारा-पौरूषी' का स्तोत्र दिया है। सोने से पूर्व उस स्तोत्र का पाठ करना पड़ता है। ‘पौषध व्रत' में गृहस्थों को भी इस सूत्र का पाठ करके सोने का होता है।
'संथारा-पौरुषी' का यह सूत्र (स्तोत्र) बहुत ही अच्छा है। हाँ, यह सूत्र प्राकृत भाषा में है, इसलिए उसका अर्थ समझ लेना चाहिए | सूत्र बोलते समय उसके भावों में डूबना चाहिए। एक एक गाथा हृदयस्पर्शी है। सभी मनोविकार उपशांत हो जाते हैं। सद्विचारों की परंपरा शुरु हो जाती है। और उसी धारा में बहते हुए सो जायं तो निद्रा में थीणद्धि' निद्रा का उदय हो ही नहीं सकता है।
चेतन, थीणद्धि निद्रा के विषय में अब स्पष्टता हो जाएगी, ऐसी मेरी श्रद्धा है। विशेष गहराई में जाना हो तो 'विशेषावश्यकभाष्य' और निशीथ सूत्र-भाष्य (गाथाः १३६ से १४०) पढ़ना पड़ेगा। शेष कुशल,
- भद्रगुप्तसूरि
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