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में सारी बात प्रगट हो गई। गुरु ने उसका मुनिवेश ले लिया।
अब तीसरा दृष्टांत हाथी के दाँत निकालनेवाले साधु का बताता हूँ।
एक साधु-मुनिराज जंगल में से गुजर रहे थे। रास्ते में एक हाथी ने साधु को बहुत परेशान किया । बड़ी मुश्किल से बचकर वे साधु उपाश्रय आए | उनके मन में उस हाथी के प्रति प्रचंड रोष था। बदला लेने की तीव्र इच्छा थी। उन का क्रोध उपशांत नहीं हुआ। वे सो गए।
निद्रा में ही थीणद्धि निद्रा का उदय हुआ । नींद में ही वे खड़े हुए | उनके शरीर में प्रबल शक्ति उत्पन्न हुई। वासुदेव की शक्ति से आधी शक्ति उत्पन्न हुई। वे साधु नगर के द्वार पर आए, द्वार तोड़ दिए। उस हाथी के पास गए। हाथी को मार डाला। उसके दो दाँत निकाल लिए और उपाश्रय में आए। हाथी के दो दाँत एक तरफ रखकर, वे वापस संथारे में सो गए।
सुबह जागकर उस साधु ने अपने गुरुदेव से कहा कि मुझे ऐसा-ऐसा स्वप्न आया। गुरुदेव ने हाथी के दो दाँत देखे और साधु का शरीर खून से सना हुआ देखा । गुरुदेव ने सोचा ‘इस साधु को 'थीणद्धि' निद्रा का उदय है, उसका साधुवेश ले लिया गया और उसको गृहवास में भेज दिया गया।
चेतन, थीणद्धि' निद्रा के विषय में चौथा दृष्टांत एक कुंभार का बताया गया है। कुंभार ने दीक्षा ली। वह साधु बन गया! रात्रि के समय निद्रा में ही उस साधु को ‘थीणद्धि' निद्रा का उदय हुआ। पूर्वावस्था में वह कुंभार था, मिट्टी के पिंड बनाना-तोड़ना... उसका अभ्यास था। उस साधु ने पास में सोए हुए साधुओं के मस्तकों को मिट्टी के पिंड समझकर तोड़ना शुरू किया। उपाश्रय के एक कोने में मस्तकों का ढेर कर दिया। प्रातः गुरु को एवं बचे हुए साधुओं को खयाल आ गया कि 'इस कुंभार साधु को थीणद्धि-निद्रा का उदय हुआ है, उसका साधु का वेष ले लिया गया और उसको निकाल दिया गया ।
चेतन, पाँचवा दृष्टांत भी एक साधु का है।
एक साधु नगर के बाहर अनेक साधुओं के साथ रहते थे। भिक्षा लेने वे गाँव में जाया करते थे। एक दिन जब वे भिक्षा लेकर उद्यान में आ रहे थे, रास्ते में एक वटवृक्ष की डाली से टकरा गए। सिर में चोट आई। उनको उस वृक्ष की डाली पर बहुत गुस्सा आया । गुस्से के साथ ही वे रात्रि में सो गए। थोड़ी देर के बाद उसके मन में 'थीणद्धि' निद्रा का उदय हुआ। वे खड़े होते हैं, उस वृक्ष के
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