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संघयण को पहला संघयण कहते हैं।
२. प्रथम संहनन की तरह दो हड्डियाँ परस्पर चिपककर रहती है, जैसे बंदरी को चिपककर उसका बच्चा रहता है। इस को 'मर्कटबंध' भी कहते हैं। उन दो हड्डियाँ के ऊपर हड्डी की एक पट्टी रहती है। इस दूसरे प्रकार के संहनन में हड्डी की कील नहीं रहती है। फिर भी दो हड्डियाँ की जोड़ मजबूत होती है।
३. तीसरे संहनन में मात्र दो हड्डियों का मर्कटबंध होता है। उसके ऊपर हड्डी की पट्टी नहीं होती है और हड्डी की कील भी नहीं होती है।
४. चौथे संहनन में एक हड्डी का मर्कटबंध होता है, दूसरी तरफ की हड्डी मात्र एक कील पर टिकी हुई होती है। यानी संपूर्ण मर्कटबंध नहीं होता है। पट्टी और कील तो होते ही नहीं।
५. पाँचवा संहनन है किलिका | दो हड्डियाँ की जोड़ पर मात्र एक कील लगी हुई होती है। एक कील के आधार पर ही दो हड्डियाँ टिकी हुई होती हैं।
६. छट्ठा संहनन है सेवार्त। इसमें दो हड्डियों के छोर भाग परस्पर जुड़े हुए होते हैं। नहीं मर्कट बंध होता है, नहीं पट्टी होती है और नहीं कील होती है। ऐसी हड्डियोंवाला शरीर बहुत सेवा की अपेक्षा रखता है। कभी हड्डियाँ दुःखती हैं, कभी टूटती हैं... इसलिए सेवा-उपचार करना पड़ता है।
चेतन, संहननों का संक्षिप्त परिचय दिया है। वैसे तो सरलता से समझ में आ जायें वैसी बातें हैं, फिर भी कोई बात समझ में नहीं आये तो लिखना।
चेतन, देव एवं नारकी के जीवों को संहनन नहीं होता है। वैसे एकेंद्रिय स्थावर जीवों को भी संहनन नहीं होता है। _ हमारे शरीर में (मनुष्य के) जो हड्डियाँ हैं, उसकी जोड़ होती है, इस लिए संहनन होता है। अभी हम सभी का संहनन सेवार्त (नं. ६) होता है। चाहे पहलवान मनुष्य हो, या सामान्य मनुष्य हो। इसलिए अपना शरीर बहुत सेवा की अपेक्षा रखता है। कभी शरीर दुःखता है, कभी कोई हड्डी टूट जाती है... सड़ जाती है, कमजोर हो जाती है।
अपनी हड्डियों के ऊपर 'संहनन नामकर्म' का नियंत्रण है। जीव ने जैसे संहनन नामकर्म बाँधा हुआ होगा, वैसी हड्डियाँ प्राप्त होती हैं।
चेतन, शायद तेरे मन में यह जिज्ञासा भी जगेगी कि शरीर में हड्डियाँ बनती
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