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पत्र :
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ।
'जाति-नाम कर्म के अनुसार संसार में सभी जीवों को जाति की प्राप्ति होती है। जिस जीव ने जैसा जाति-नाम कर्म बाँधा होगा वैसी जाति-अवांतर जाति प्राप्त होती है। चेतन, इस विषय में तेरी जो जिज्ञासा थी, उसका समाधान हो गया, जान कर मुझे संतोष हुआ। तेरा नया प्रश्नः
'अभी थोड़े दिनों से मेरे चिंतन का विषय बना है शरीर! कौन से पुद्गलों से हमारे शरीर का निर्माण होता है? कौन करता है शरीर की रचना! सभी मनुष्य समान होते हुए अंग-उपांग की असमानता क्यों? रंगरूप की असमानता क्यों? आज मैं इतनी जिज्ञासाएँ लिखता हूँ, विशेष जिज्ञासाएँ बाद में लिखूगा।'
चेतन, अब तत्त्वचिंतन का तेरा भीतरी द्वार खुल गया है। तेरे प्रश्न पढ़कर बहुत आनंद हुआ । शरीर-रचना, मनुष्य के शरीर की रचना औदारिक-वर्गणा के पुद्गलों से जीव स्वयं करता है। इसलिए सर्वप्रथम पुद्गलों के विषय में ज्ञान होना अति आवश्यक होता है। प्रत्येक जीवात्मा के साथ आठ पुद्गल-वर्गणाओं का संबंध होता है। इनके नाम इस प्रकार हैं
- संसार का प्रत्येक जीव कार्मण शरीर से युक्त होता ही है। और 'तेजस शरीर' भी संलग्न होता है। ग्रहण किए हुए आहार को पचाने के लिए तैजस शरीर चाहिए ही।
चेतन, हर मनुष्य और तिर्यंच जीव तीन शरीर से युक्त होता है। आहारक, तैजस और कार्मण शरीर होते हैं।
देव और नारकी को वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीर होते हैं। जिसका जैसा शरीर नाम कर्म होता है, वैसा शरीर-निर्माण होता है। औदारिक वर्गणा के पुद्गल, औदारिक-शरीर नामकर्म के उदय से जीव को प्राप्त होते हैं।
चेतन, शरीर नामकर्म से शरीर बनता है, और अंगोपांग-नामकर्म से शरीर के अंग, उपांग और सभी अवयवों का निर्माण होता है।
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