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औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीरों को ही अंगोपांग होते हैं। तैजस और कार्मण शरीर को अंगोपांग नहीं होते हैं।
दो हाथ, दो पाँव, सिर, पेट, पीठ और छाती - ये हैं शरीर के अंग और अंगुलियाँ, नाक, कान वगैरह उपांग कहलाते हैं। अंगुलि के पर्व और हाथ की रेखाओं का समावेश उपांग में होता है।
अंग और उपांग की उत्पत्ति, इस अंगोपांग नामकर्म से होती है।
अंगोपांग के उचित स्थान निश्चित करनेवाला नाम कर्म है निर्माण-नाम कर्म । सिर की जगह सिर, पाँव की जगह पाँव और हाथ की जगह हाथ... कान की जगह कान और नाक की जगह नाक... यह स्थाननिर्धारण का काम निर्माणनामकर्म करता है। कान की जगह नाक नहीं है, नाक की जगह कान नहीं है... हाथ की जगह पाँव नहीं है... पाँव की जगह हाथ नहीं है... क्योंकि निर्माणनामकर्म होता है। अंगोपांग पर इस कर्म का प्रभाव है, नियमन है।
अंगोपांग सप्रमाण हो या विषम प्रमाण के होने में निर्णायक १. औदारिक पुद्गल, २. वैक्रिय पुद्गल, ३. आहारक पुद्गल, ४. तैजस पुद्गल ५. कार्मण पुद्गल ६. भाषा पुद्गल ७. श्वासोच्छ्वास पुद्गल ८. मन के पुद्गल
ऐसे पुद्गल (आठों प्रकार के) भी अनंत हैं जो जीव को कभी काम नहीं आते! उन पुद्गलों का अस्तित्व मात्र है।
जीव के काम आनेवाले पुद्गल (आठों प्रकार के) भी अनंत होते हैं। - अनंत परमाणु-पुद्गल का एक स्कंध होता है, - अनंत पुद्गल-स्कंधों की एक वर्गणा होती है, - वैसी अनंत पुद्गल-वर्गणायें, आत्मा के एक-एक प्रदेश के साथ लगी हुई
होती हैं।
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