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व्यंतरदेव आठ प्रकार के होते हैं: पिशाच, भूत, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व । वाण-व्यंतर देवों की आठ निकाय होती है:
अणपन्नी, पणपन्नी, इसीवादी, भूतवादी, नंदित, महाक्रंदित, कोहंड और पतंग।
ज्योतिषि देव पाँच प्रकार के होते हैं: चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा। बारह वैमानिक देवलोक इस प्रकार है:
सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लांतक, शुक्र, सहस्त्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत।
नव ग्रैवेयक और पाँच अनुत्तर देवलोक होते हैं।
चेतन, देवलोक में देवियाँ भी होती है। देव-देवी के संभोग कहाँ तक और किस प्रकार होते हैं, यह भी कुछ स्थूल रूप से बता देता हूँ
- सौधर्म और ईशान देवलोक में काया से मैथुन सेवन होता है, - सनत्कुमार और माहेन्द्र देवलोक में मात्र स्पर्श से मैथुन होता है, - ब्रह्म और लांतक देवलोक में रूपदर्शन स्वरूप मैथुन होता है, - शुक्र और सहस्त्रार देवलोक में शब्द श्रवण रूप मैथुन होता है, - आनत, प्राणत, आरण, अच्युत में मनोयोग से ही मैथुन होता है, - ग्रैवेयक व अनुत्तरदेव में मैथुन नहीं होता है। देव वीतराग जैसे होते हैं। चेतन, देव अपनी शक्ति से अपने वीर्य-पुद्गलों को देवी के शरीर में
संक्रमित करता है। इससे देवी को सुख का अनुभव होता है, परंतु देव के वैक्रिय वीर्य-पुद्गलों से देवी गर्भ धारण नहीं करती हैं।
- वैसे, सुधर्मा सभा में माणवक चैत्य के डिब्बे में तीर्थंकरों की दाढ़ा रहती है (दांत के अस्थि), उसकी मर्यादा रखते हुए वहाँ देव-देवेन्द्र देवी के साथ संभोग नहीं करते हैं।
- कुछ देव जब तीव्र कामवासना से उत्तेजित होते हैं, अपनी देवी के साथ संभोग करने से तृप्त नहीं होते हैं, कामवासना शांत नहीं होती हैं तब वे
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