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मृत्यु के पूर्व गति और आयुष्य का निर्णय अवश्य हो जाता है।
१. गति २. जाति ३. आयुष्य ये तीन बातें मृत्यु के पूर्व निश्चित हो जाती हैं।
वर्तमान जीवन मर्यादा का आधार है आयुष्य कर्म। जिस का सौ वर्ष का आयुष्य कर्म होगा, वह सौ वर्ष जिएगा। जिस का दस साल का आयुष्य कर्म होगा वह दस साल जिएगा।
चेतन, आयुष्य कर्म के दो प्रकार होते हैं: - सोपक्रम और निरुपक्रम |
उपक्रम का अर्थ होता है आघात... धक्का | सोपक्रम आयुष्य कर्म ऐसा होता है कि सौ वर्ष का आयुष्य कर्म लेकर जीव आया हो, परंतु आघात लगने पर दस वर्ष... बीस वर्ष... पचास वर्ष में कभी भी आयुष्य कर्म टूट सकता है और जीव की मृत्यु हो जाती है। बीच में कभी भी आयुष्य कर्म टूट सकता है। यदि आघात नहीं लगे तो सौ वर्ष पूर्ण कर सकता है। अकस्मात में मरनेवालों का, आत्महत्या कर मरनेवालों का आयुष्य कर्म ‘सोपक्रम' होता है।
- आघात लगने पर भी, धक्का लगने पर भी आयुष्य नहीं टूटता है, वह 'निरूपक्रम' आयुष्य कहा जाता है। शास्त्रों में लिखा है कि तीर्थंकरों का, चक्रवर्ती का, बलदेव-वासुदेव का आयुष्य कर्म निरूपक्रम होता है। प्रतिवासुदेवों का भी निरूपक्रम आयुष्य कर्म होता है। उत्तम पुरुषों का आयुष्य कर्म निरूपक्रम होता है।
चेतन, अपना आयुष्य-कर्म सोपक्रम होता है। आघात लगने पर कभी भी अपना आयुष्य पूर्ण हो सकता है।
आघात अनेक प्रकार के होते हैं - - प्रियजन की मृत्यु, - अचानक राजकीय आपत्ति, - रेल्वे अकस्मात, - रोड अकस्मात, - अति भय, - बाढ़ में, आग में सर्वविनाश,
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