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पत्र :
प्रिय चेतन, धर्मलाभ। तेरा सद्भावपूर्ण पत्र पाकर आनंदित हुआ।
दुनिया में उच्च-जीव का भेद कर्मकृत है, गोत्र कर्म-सर्जित है, यह बात तेरी समझ में आ गई, अच्छा हुआ।
तेरा नया प्रश्नः
'एक मनुष्य सौ साल जीता है, कोई जन्मते ही मर जाता है। कोई वृद्धावस्था में मर जाता है, कोई जुवानी में मर जाता है, तो कोई किशोर अवस्था में मर जाता है। समझ में नहीं आता कि जीवन का निर्णायक तत्त्व कौन सा है? जीवन और मृत्यु का कोई निर्णायक तत्त्व होना चाहिए।' __चेतन, जीवन का निर्णायक-तत्त्व है आयुष्य कर्म। चारों गति के सभी जीव, पूर्वजन्म में जिस गति का आयुष्य बाँधे हुए होते हैं उस गति में जन्मते हैं और जितने वर्ष का आयुष्य बाँधा होगा, वहाँ उतने वर्ष वे जिएँगे। आयुष्य-कर्म पूरा होते ही जीव की मृत्यु हो जाती है।
मनुष्य चारों गति का आयुष्यकर्म बाँध सकता है। देवगति का, मनुष्य गति का, तिर्यंच गति का और नरक गति का आयुष्य कर्म बाँध सकता है। गति का निर्णय गति-नामकर्म से होता है। उस-उस गति में आयुष्य का निर्णय आयुष्यकर्म से होता है।
इस जीवन में ही जीवात्मा आगामी (मृत्यु के बाद की) गति का निर्णय कर लेता है और उस गति में जीवन की मर्यादा (आयुष्य) का निर्णय भी कर लेता है। मान लें कि मैंने देवगति का कर्म गति-नामकर्म से बाँध लिया ___ है। उसके साथ-साथ उस देवगति में मेरा आयुष्य कितने वर्ष का होगा, उसका निर्णय भी हो जाता है, वह निर्णय आयुष्य-कर्म (देव-आयुष्य) के माध्यम से होता है।
हालाँकि मनुष्य को मालूम नहीं पड़ता है कि उसने कब आयुष्य कर्म बाँध लिया है। किस गति का कर्म बाँधा है, वह भी उसको मालूम नहीं होता। किन्तु
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