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नहीं केवलज्ञानी बनने की पात्रता रखते हैं। फिर भी ज्ञान और दर्शन के विषय में जानकारी होना आवश्यक है।
'ज्ञानोपयोग' और 'दर्शनोपयोग' जैन दर्शन का विशिष्ट तत्त्वज्ञान है। और यह 'उपयोग' ही 'आत्मा' का लक्षण है। 'प्रशमरति' ग्रंथ में कहा गया है:
सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम् ।
साकारोऽनाकारश्च सोऽष्टभेदश्चतुर्धा च ।।१९४।। सभी जीवों का सामान्य लक्षण ‘उपयोग' है। उस उपयोग के दो प्रकार है: साकार और अनाकार | साकार के आठ प्रकार और अनाकार के चार प्रकार हैं।
चेतन, यह उपयोग' शब्द जैन तत्त्वज्ञान की परिभाषा का शब्द है। इस शब्द को संसार-व्यवहार के अर्थ में नहीं समझना है। जैसे कि 'मैं बरसात में इस छाते का उपयोग करता हूँ, लिखने के लिए मैं इस पेन का उपयोग करता हूँ।' यहाँ जिस 'उपयोग' शब्द
का प्रयोग किया गया, वह संसार-व्यवहार में प्रयुक्त शब्द है। प्रस्तुत में 'उपयोग' शब्द 'बोधरुप व्यापार' के अर्थ में प्रयुक्त है।
शायद तेरे मन में प्रश्न उठेगा किः ‘आत्मा में अनंत गुण है, उसमें से 'उपयोग' को ही आत्मा का लक्षण क्यों कहा गया?' __चेतन, आत्मा में गुण अनंत हैं, परंतु सभी गुणों में उपयोग' की प्रधानता है। उपयोग 'स्व-पर प्रकाशरूप' गुण है। उपयोग ही स्व और पर का बोध कराता है, ज्ञान कराता है। 'यह अच्छा, यह अच्छा नहीं, यह ऐसा क्यों? ऐसा क्यों नहीं?' वगैरह ज्ञान 'उपयोग' के कारण ही जाना जाता है।
लक्षण ऐसा होना चाहिए कि जो समग्र लक्ष्य में सदैव रहता हो । आत्मा लक्ष्य है, उपयोग लक्ष्य है। सभी आत्माओं में यह लक्षण सदैव देखा जा
सकता है। 'निगोद' की अति सूक्ष्म आत्मा-में भी उपयोग-गुण प्रकट होता है। यह उपयोग-लक्षण
- आत्मा में ही रहता है, (लक्ष्य में ही रहता है) - लक्ष्येतर-जड़ में नहीं जाता है, - सकल लक्ष्य में रहता है। चेतन, उपयोग दो प्रकार का है: - ज्ञानोपयोग (विशेष बोध) और दर्शनोपयोग (सामान्य बोध)
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