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मालूम हो जाता है। तब क्रोध के आवेश में बोल देता है - 'इसके कान काट दो.. इस के कान बहरे कर दो...' वगैरह, ___ - वैसे, किसी को हम कोई बात पूछते हैं और वह जवाब नहीं देता है, तब क्रोध में बोलते हैं - 'गूंगा है क्या? मुँह में जीभ नहीं है क्या? बोलता क्यों नहीं?'
- मूक लोगों का उपहास करते हैं, हँसते है, - मूक लोगों को सताने की भावना से मूक होने का अभिनय करते हैं, - मूक लोगों के प्रति क्रोध, तिरस्कार करते हैं,
इससे 'अचक्षुदर्शनावरण' कर्म बंधता है। वह कर्म जब उदय में आता है तब यह मनुष्य को बहरा-गूंगा बनाता है।
वैसे नाक और स्पर्शेद्रिय के विषय में भी समझना ।
सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात है मन की । अचक्षुदर्शनावरण कर्म का संबंध मन के साथ भी है।
- कोई मनुष्य सोच ही नहीं सकता है, मूढ होता है, - कोई मनुष्य तत्त्वचिंतन-मनन नहीं कर सकता है, - किसी का मन विक्षिप्त हो जाता है, - कोई मनुष्य अर्धपागल अथवा पूर्ण पागल होता है... इसका कारण यह 'अचक्षुदर्शनावरण कर्म' है।
चेतन, इसलिए मैं तुझे कहता हूँ कभी अपनी बुद्धि का अभिमान नहीं करना। दूसरों की बुद्धि का उपहास नहीं करना। 'वह तो बुद्धिहीन है... उसमें तो दिमाग नाम का यंत्र ही नहीं है... उसको तो विचार करना ही नहीं आता है... वह तो पागल है पागल... निरा मूर्ख है... उसमें अक्ल की एक बूंद भी नहीं है...' इत्यादि शब्दप्रयोग कभी नहीं करना । अपने अच्छे मन का अभिमान नहीं करना है और दूसरों के मन का तिरस्कार नहीं करना है।
अपने मन को पवित्र, निर्मल एवं विशुद्ध रखने के लिए जागृत रहना है। तेरे प्रश्नों का समाधान हो जाएगा इस पत्र से। इस दर्शनावरण कर्म के विषय में विशेष बातें लिखूगा आगे के पत्र में...
- भद्रगुप्तसूरि
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