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जीव-कर्म का संयोग अनादि है। यानी जीव कभी भी कर्म से मुक्त नहीं था । अनंत भूतकाल में कभी भी जीव शुद्ध नहीं था, स्वतंत्र नहीं था! कर्मों के बंधन में बँधा हुआ ही था और आज भी हम कर्मों के बंधनों में जकड़े हुए हैं।
तू पूछेगाः ये 'कर्म' क्या हैं?
कर्म, जड़ पुद्गल हैं। कर्म-पुद्गल की जाति का नाम है ‘कार्मण’। पुद्गलों की प्रमुख आठ जाति हैं । औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस, भाषा, श्वासोच्छ्वास, मन और कार्मण। ये पुद्गल अनंत हैं। सारे लोक में, सृष्टि में भरे पड़े हैं । अति सूक्ष्म होने से अपन देख नहीं पाते हैं । परंतु जीवात्मा जब उन पुद्गलों को ग्रहण करता है तब कुछ पुद्गल दृष्टिपथ में आते हैं... कुछ नहीं आते।
‘कार्मण' पुद्गल अति सूक्ष्म होते हैं । जीवात्मा जब उन पुद्गलों को ग्रहण करता है तब वे ‘कर्म' कहलाते हैं। यानी जीवात्मा के संयोग से वे 'कर्म' बनते हैं। तू कहेगाः आत्मा अरूपी है और कर्म रूपी है - दोनों का संयोग कैसे हो सकता है?
ऐसा प्रश्न, भगवान महावीरस्वामी को अग्निभूति गौतम ने पूछा था। भगवान ने समाधान किया था। 'कर्म' के विषय में बहुत सारे प्रश्न अग्निभूति ने पूछे थे! सभी प्रश्नों का समाधान भगवान ने किया था! समाधान होने पर, अग्निभूति गौतम भगवान के शिष्य बन गए थे।
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चेतन, रूपी कहो या मूर्त कहो, अरूपी कहो या अमूर्त कहो, समान शब्द हैं। मूर्त और अमूर्त का संयोग होता है। कुछ दृष्टांतों से यह बात समझाता हूँ:
- आकाश अमूर्त-अरूपी है न ? और अपना शरीर मूर्त है! शरीर और आकाश का संबंध है न? है !
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आत्मा अमूर्त है और शरीर मूर्त है ! आत्मा व शरीर का संबंध है न?
• शरीर मूर्त है, रूपी है, परंतु शरीर की सारी क्रियाएँ अमूर्त हैं ! क्रियाएँ अमूर्त-अरूपी होती हैं सभी प्रकार की । शरीर और क्रियाओं का संबंध है। - इसी प्रकार कर्म और आत्मा का संबंध है ।
अलबत्, अपने लिए तो दोनों अरूपी हैं - आत्मा और कर्म ! न हम आत्मा को देख सकते हैं, ना कर्मों को। अपनी किसी भी इंद्रिय से आत्मा और कर्म का अनुभव संभवित नहीं है । परंतु प्रत्यक्ष प्रमाण के अलावा दूसरे अनुमान प्रमाण,
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