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पत्र :
प्रिय चेतन, धर्मलाभ! तेरा पत्र मिला, आनंद हुआ।
तेरे पत्र में तेरे मनोभावों का और विचारों का अवतरण हुआ है। अच्छा है, इस प्रकार मन तेरा हलका होता जाएगा। मन भारी हो, विचार मस्तिष्क के भीतर हथौड़े मारने लगें तो उन्हें हलका करने का कोई माध्यम होना चाहिए। अशांति की वेगमयी धारा ही भटकन और विचलन को जन्म देती है। ऐसी स्थिति में गलत विचार आते हैं और गलत कदम भी उठ जाते हैं।
चेतन, समग्र संसार अशांत है। शिकायतों से समूचा संसार व्याप्त है। ये शिकायतें अनंत-अपार हैं।
अभी मेरा कमरा शांत है, बंद है, शीतल है, वातावरण में गंभीरता है। जल, थल, नभ... तीनों शांत हैं। अन्यथा विराट नगर में शांति कहाँ? परंतु रात्रि नीरव है। भीतर में बाहरी शांति का अमृतपान कर रहा हूँ और तुझे यह पत्र लिखने बैठा हूँ।
चेतन, उर्ध्व-अधो और मध्यम भाग में विभक्त यह सृष्टि, यह लोक शाश्वत है। कभी यह लोक जन्मा नहीं, कभी यह लोक नष्ट नहीं होगा। जो हमेशा होता है, परंतु कभी पैदा नहीं होता और कभी नष्ट नहीं होता, उसको 'शाश्वत' कहते हैं।
शाश्वत लोक में सब कुछ शाश्वत है! जीव भी शाश्वत और जड़ भी शाश्वत! परंतु दुनिया की व्यवहार भाषा में 'जन्म' और 'मृत्यु' दो शब्द हम सुनते हैं। रूपपरिवर्तन होता है जीव का, तब 'इस की मृत्यु हुई, इसका
जन्म हुआ,' ऐसा कहा जाता है। जड़ पुदगल के लिए भी ‘उत्पत्ति' और 'विनाश' दो शब्द कहे जाते हैं। पर्याय की उत्पत्ति एवं पर्याय का ही नाश होता है। 'मूलभूत द्रव्य' की न उत्पत्ति होती है, न विनाश |
जीव अनंत हैं, एक-एक जीव के पर्याय अनंत हैं। संसार के सभी-अनंत जीव 'कर्मों से आबद्ध हैं।
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