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पत्र : २६
प्रिय चेतन,
धर्मलाभ !
भक्तिभाव से परिपूर्ण तेरा पत्र मिला ।
चित्त आनंदित हुआ। तेरे प्रश्न का तुझे प्रत्युत्तर मिला और तेरे मन का समाधान हुआ, इस बात से मुझे संतोष हुआ। तेरा नया प्रश्न इस प्रकार है:
'गुरुदेव, दूसरे मनुष्यों के मन की बातें जानी जा सकती हैं क्या ? वैसे मेरे मन की बातें, वहाँ दूर रहे आप जान सकते हो क्या ? और यदि जान सकते हैं दूसरों के विचारों को, देख सकते हैं दूसरों की मनःस्थिति को, तो फिर हम क्यों नहीं देख सकते हैं? क्यों नहीं जान सकते हैं?'
चेतन, तेरा प्रश्न बहुत अच्छा है। परंतु मैं तुझे पूछता हूँ कि दूसरों के मन के विचार तुझे क्यों जानना है ? दूसरों की मनःस्थिति का दर्शन क्यों करना है ? कोई कारण तो होगा न?
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जानकर तू भयभीत होगा, अथवा तेरे मन में द्वेष जगेगा ? अथवा राग होगा... अथवा हँसी आएगी.. अथवा दुःख होगा । तू इतना सोच कि दूसरा तेरा कोई मित्र या शत्रु, तेरे मन को पढ़ ले तो ? तुझे पसंद आएगा ? नहीं! अच्छा है कि हम किसी के मन के विचारों को नहीं जान सकते हैं । अन्यथा बड़ी आफ़त आ सकती है।
तेरा कोई शत्रु, तेरे विषय में क्या सोचता है, तुझे वह जानना है ? तेरा कोई मित्र, तेरे विषय में क्या सोचता है, तुझे देखना है ?
मैं पूछता हूँ : जानकर तू क्या करेगा ?
- चूँकि हम इंद्रिय विजेता नहीं हैं,
हम कषाय विजेता नहीं हैं।
जब तक हम इंद्रियों के एवं कषायों के विजेता नहीं बनें, तब तक दूसरों
के मानसिक विचार जानने की इच्छा भी मत करें। तब तक अपने स्वयं के विचारों को देखें और समझें ! अशुभ विचारों से मुक्त होने का उपाय करें एवं शुभ
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