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विचारों को बढ़ाने का प्रयत्न करें।
चेतन, हालाँकि है वैसा एक ज्ञान, उस ज्ञान के माध्यम से दूसरों के मन के विचार जाने जा सकते हैं, परंतु वह ज्ञान विकारी, कषायी एवं प्रमादी जीवों को नहीं हो सकता है। उस ज्ञान का नाम 'मनःपर्यव' हैं। जिस महापुरुष को मनःपर्यव-ज्ञान होता है वह दूसरों के मनोविचारों को जान सकते हैं, देख सकते
___ मनःपर्यव ज्ञान न गृहस्थ को होता है, नहीं सामान्य साधु को होता है। यह ज्ञान सातवें गुणस्थानक पर रहे हुए अप्रमत्त चारित्रवंत महात्मा को होता है।
चेतन, 'गुणस्थानक' का तत्त्वज्ञान तो तूने पाया है। सातवें गुणस्थानक पर पहुँचना सरल नहीं है। बहुत मुश्किल काम है। छठे गुणस्थानक पर रहे हुए साधुओं को भी सातवें गुणस्थानक पर जाना मुश्किल होता है, तो फिर चौथेपाँचवें गुणस्थानक पर रहा हुआ तू कैसे सातवें गुणस्थानक पर जा सकता है?
- 'सर्वविरति' चारित्र होना अनिवार्य है। - अप्रमत्त आत्मदशा होना अनिवार्य है।
- निद्रा नहीं होना, विकथा नहीं होना, कषाय नहीं होना, वैषयिक सुखों की तनिक भी इच्छा नहीं होना।
- ऐसी आत्मदशा भले ही दिन-रात न रहे, पाँच-दस घंटे नहीं रहे, ४०/५० मिनिट भी नहीं रह सके... परंतु ५/२५ मिनिट भी रहनी चाहिए। सभी विकार उपशांत हो... चित्त आत्मध्यान में लीन हो... आत्मचैतन्य स्फुरायमान हो... विशुद्ध अध्यवसाय वृद्धिगत हो... ऐसी आत्मस्थिति में 'मनःपर्यवज्ञान' प्रकट हो सकता है। प्रकट होना अनिवार्य नहीं होता, प्रगट होने की संभावना बनती है। परंतु एक बात समझना कि मनःपर्यवज्ञान सर्वविरतिधर महात्मा को ही होगा। मन-वचन-काया से जिन महात्माओं ने हिंसा वगैरह पापों का सर्वथा त्याग किया है और संयममय जीवन जिनका
होता है, उनको ही ‘मनःपर्यवज्ञान' हो सकता है, जब वे श्रेष्ठ आत्मविशुद्धि में प्रवर्तमान होते हैं तब।
चेतन, यदि तुझे दूसरे मनुष्यों के मनोविचारों को जानना है तो तुझे सर्वविरतिमय चारित्रधर्म का स्वीकार करना होगा। यह पहली शर्त है। दूसरी शर्त है अप्रमत्त बनने की। प्रमाद रहित जीवन जीना, सरल बात नहीं है। साधु जीवन में इंद्रियों
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