________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
माँ का दिल
७८
'मैं सिंहलद्वीप तक के रास्ते में आनेवाले राज्यों में मेरे परिचित राजाओं को संदेश भिजवा देता हूँ... तुम जहाँ भी जाओगे, वहाँ तुम्हें सब तरह की सुविधाएँ मिल जाएगी। व्यापार में भी सफलता मिलेगी । '
धनावह सेठ ने कहा : 'मैंने भी उस रास्ते के मेरे परिचित व्यापारी श्रेष्ठियों को समाचार भिजवा दिये है । '
'प्रयाण कब करना है ?' महाराजा ने पूछा ।
‘अक्षयतृतीया के दिन।'
'अच्छा दिन है।'
‘विदेश-यात्रा सफल होगी।'
'जल्दी-जल्दी वापस आयें... हम ऐसी ही कामना करें ।'
+++
अक्षयतृतीया का मंगल दिन आ पहुँचा।
समुद्र में सुंदर बारह जहाज तैयार खड़े थे ।
जहाजों में क़ीमती सामान भरा हुआ था । नाविक, नौकर-चाकर... और मुनीम लोग जहाज में बैठ चुके थे ।
अमरकुमार व सुरसुंदरी को विदा करने के लिए चंपानगरी के हजारों स्त्रीपुरूष समुद्र के किनारे पर एकत्र हुए थे । महाराजा और महारानी ... सेठ और सेठानी... मौन थे । स्वजन विरह की व्यथा से वे बेचैन थे ।
अमरकुमार प्रसन्न था ।
सुरसुंदरी भी हर्षविभोर थी ।
‘विजयमुहूर्त' की प्रतीक्षा हो रही थी । अमरकुमार की चन्द्रनाड़ी चल रही थी... शुभ शकुन हो रहे थे... पक्षियों की मधुर ध्वनि गूँज रही थी... सागर की तरंगे नाच रही थीं ।
सुरसुंदरी पंचपरमेष्ठी भगवंतो के स्मरण में लीन थी । रतिसुंदरी व धनवती सुरसुंदरी की दोनों ओर खड़ी रहकर शुभकामनाएँ व्यक्त कर रही थी ... कभी शंका-कुशंकायों से भी घिर जाती थीं ।
राजपुरोहित ने पुकारा : मुहूर्त का समय आ चुका है। पावन कदम बढाइए... जहाज में आरूढ होइए । '
For Private And Personal Use Only