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कशमकश
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६९
'आपने पिताजी से बात की?'
'नहीं, किसी को कुछ नहीं कहा है... इसलिए तो नींद हराम हो गयी है...आज पहले- पहल तुझसे ही बात की है ...!'
'अच्छा अब तो नींद आ जायेगी न? चलें ... सो जाएँ !
'नहीं... मैं विदेश यात्रा पर जाऊँ, इसमें तेरी अनुमति है न ?
तू तो प्रसन्न होकर इज़ाज़त देगी न?'
' यानी क्या आप मुझे यहीं छोड़कर जाने का इरादा रखते हो ?'
‘हाँ!’
'नहीं, यह नहीं हो सकता ! मैं तो आपके साथ ही चलूँगी! जहाँ वृक्ष, वहाँ उसकी छाया! मैं तो आपकी छाया बनकर जी रही हूँ । '
'विदेश यात्रा तो काफी मुश्किलों से भरी होती है। कई तरह की प्रतिकूलताएँ आती है यात्रा में तो! वहाँ तुझे बिल्कुल नहीं अच्छा लगेगा ! और फिर मेरे सर पर तेरी चिंता...!′
'मैं मेरी चिंता आपको नहीं करने दूँगी। आपकी सारी चिंता मै करूँगी । आप मेरी तरफ से निश्चिंत रहिएगा ।'
‘निश्चिंत रहा ही कैसे जा सकता है ? तू साथ में हो फिर मेरा मन तेरे में ही डूबा रहे... व्यापार-धंधा करने का सूझे ही नहीं । '
'आप बहाने मत बनाइए, मेरी एक बात सुनिए... अपने को पंडितजी ने अध्ययन के दौरान नीतिशास्त्र की ढ़ेर सारी बाते सिखायी थी, याद है ना? उन्होंने एक बार कहा था कि आदमी को छह बातों को सूना नहीं छोड़ना चाहिए ।'
'पत्नी को अकेला नहीं रखना, राज्य को सूना नहीं रखना, राजसिंहासन को सूना नहीं छोड़ना भोजन को सूना नहीं रखना और संपत्ति को सूना नहीं छोड़ना चाहिए। याद आ रही है गुरूजी की बातें ?'
'पर, मैं तुझे अकेली छोड़कर जाने की तो बात ही कहाँ कर रहा हूँ? यहाँ तू अकेली कहाँ हो ? माँ है, पिताजी हैं, यहाँ मन न लगे तो राजमहल कहाँ दूर है ? वहाँ पितृगृह में जाकर रह सकती है कुछ समय ।'
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'ओह, मेरे स्वामी पति के बिना नारी सूनी ही होती है ! यौवन के दिनों में इस तरह पत्नी का त्याग करके नहीं जाते ! मै तो आपके साथ ही आऊँगी ।'