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कशमकश
६८ 'परेशानी नहीं है सुंदरी, पर मन में विचारों की आँधी उमड़ रही है।' 'किसके विचार आ रहे हैं? क्या मुझे कहने जैसे नहीं हैं वे विचार?' 'तेरे से छुपाने जैसा मेरे मन में है भी क्या? तुझे कहे बगैर तो चलने का भी नहीं...।' 'तो फिर इतनी देरी क्यों?' 'शायद तुझे दुःख होगा...।' 'यदि आपके दिल में दुःख होगा तो मुझे भी दुःख होगा! आपके दिल में यदि दुःख नहीं होगा, तो मुझे भी किसी तरह का दुःख नहीं होगा।'
'दिल में दुःख नही है सुरसुंदरी... पर चिंता तो ज़रूर है। हाँ, यदि तू मान जाए तो मेरी चिंता दूर हो सकती है। तूही उसे दूर कर सकती है!' 'आपकी कौन-सी बात मैंने नहीं मानी?' 'तो कह दूँ?' 'कहिए ना!'
'सुर... पिछले कई दिनों से विदेश-यात्रा करने के विचार आ-आ कर मेरे दिल-दिमाग को घेर लेते हैं!'
‘पर क्यों? विदेश-यात्रा की आवश्यकता क्या है?' 'अपनी कमाई से संपत्ति प्राप्त करना है... अपने बुद्धि-कौशल्य से दौलत पाना है!'
'संपत्ति की यहाँ क्या कमी है? इतनी ढेर सारी संपत्ति तो अपने पास है, फिर भी ज्यादा...!'
'यह तो पिताजी की संपत्ति हैं, सुंदरी!' 'इसके वारिस तो आप ही हैं ना?'
'मैं बाप की कमाई पर जीना पसंद नहीं करता...। मेरा पराक्रम, मेरी होशियारी... मेरी कुशलता तो मेरे पुरूषार्थ से संपत्ति पैदा करने में है!'
'तो क्या अपने ही देश में रहकर आप व्यापार नहीं कर सकते?'
'कर तो सकता हूँ... पर विदेश... देश-विदेश घूमने की इच्छा भी तो प्रबल है ना! और फिर सिंहलद्वीप में तो व्यापार भी काफी अच्छा हो सकता है। ढेर सारी संपत्ति वहाँ पर थोड़ी-सी मेहनत से प्राप्त की जा सकती है।'
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