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जनम जनम तूं ही माँ !
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७. जनम-जनम तू ही माँ !
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जितनी तमन्ना और तन्मयता से सुरसुंदरी ने विद्याध्ययन किया था, कलाएँ सीखी थी, उतनी ही तमन्ना और तन्मयता से उसने जैन धर्म के सिद्धान्तों का अध्ययन भी किया था। साध्वी सुव्रता ने वात्सल्य भरे हृदय से उसे अध्ययन करवाया ।
विद्यार्थी की विनम्रता और विनय गुरु के दिल में वात्सल्य पैदा करते हैं, करुणा का झरना प्रवाहित करते हैं। गुरु का वात्सल्य और गुरु की करुणा विद्यार्थी में उत्साह एवं उद्यम पैदा करती है।
अमरकुमार ने भी जैनाचार्य कमलसूरिजी के चरणों में बैठकर अध्ययन किया। विनय, नम्रता वगैरह गुणों के साथ उसमें तीव्र बुद्धि भी थी । आत्मवाद का उसने गहरा अध्ययन किया । कर्मवाद का विशद अध्ययन किया । अनेकांतवाद की व्यापक विचारधारा को अंतस्थ बनाया ।
सुरसुंदरी को साध्वी सुव्रताजी ने कर्म का सिद्धांत समझा कर पंचपरमेष्ठी के ध्यान की प्रक्रिया समझायी । अध्यात्मयोग की गहन बातें बतलायी। समग्र चौदह राजलोक की समूची व्यवस्था का ज्ञान आत्मसात् करा दिया । मोक्षमार्ग की आराधना का क्रमिक विकास बताया ।
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एक दिन अमरकुमार आचार्य श्री की वंदना करके उपाश्रय के सोपान उतर रहा था और सुरसुंदरी आचार्य श्री की वंदना करने के लिए उपाश्रय के सोपान चढ़ रही थी। दोनों की आँखें मिलीं।
'ओह...
सुंदरी?'
'बहुत दिन बाद मिले नहीं, अमर?'
'हाँ... अब कहाँ हम एक पाठशाला में पढ़ाई करते हैं ? अध्ययन करने के स्थान अलग-अलग हो गये, तो मिलना भी इसी तरह अचानक हो, तो हो ।'
'सही बात है तेरी, अमर, पर...'
‘पर क्या, सुंदरी? अध्ययन में तू इतनी डूब गयी होगी कि अमर तो याद भी नहीं आता होगा ... है न ?' अमर के चेहरे पर शरारत तैर गई।
'सच बताऊँ? ... अमर, एक भी दिन ऐसा नहीं जाता कि तू याद न आता