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आंसुओं में डूबा हुआ परिवार
३२७ 'नाथ, तो फिर भानजे का हम नामकरण कर डालें क्या?' चारों रानियों ने पूछा :
'ज़रूर करें...।' 'उसका नाम 'अक्षयकुमार' रखें!' 'वाह! बहुत सुंदर नाम रखा!' राजा रिपुमर्दन प्रसन्न हो उठे। उन्होंने कहा
'मेरे बाद चंपानगरी का राजा अक्षयकुमार होगा!' सभी ने जयजयकार किया। सभी अपनी अपनी प्रवृत्तियों में व्यस्त हो गये।
वसंत पंचमी! दीक्षा का शुभ मुहूर्त का दिन!
चंपानगरी में दिव्य श्रृंगार सजे थे... नगरी के राजमार्ग पर क़ीमती रत्नों के तोरण लटकाये गये थे। सुगंधयुक्त पानी का सिंचन किया गया था। हज़ारों रथ, हाथी और घोड़ों को सजाये-सवारे गये थे। विद्याधरों के वाद्यों ने वातावरण को प्रसन्नता से भर दिया था।
अमरकुमार और सुरसुंदरी दीक्षा ग्रहण करने के लिए हवेली से निकले। गुणमंजरी बेहोश ज़मीन पर ढेर हो गयी। रत्नजटी की रानियों ने उसको सम्हाल लिया। एक रथ में उसके साथ ही चारों रानियाँ बैठ गयी।
अमरकुमार और सुरसुंदरी ने ढेर सारी संपत्ति को दान में दे दी। रत्नजटी, राजा रिपुमर्दन और राजा गुणपाल ने भी विपुल संपत्ति का दान दिया।
शोभायात्रा नगर के बाहरी उपवन में पहुँची। जहाँ पर गुरूदेव ज्ञानधर मुनि बिराजे हुए थे। दंपति रथ में से उतर गये । अन्य सभी भी रथ में से नीचे उतरे । वाद्यों का स्वर बंद हो गया। दोनों ने आकर गुरूदेव की परिक्रमा करके वंदना की। ईशान कोने की तरफ जाकर, शरीर पर के अलंकार उतारे... और रत्नजटी की गोद में दिये। उन्होंने स्वयं अपने केशों को लुंचन किया । गुरूदेव ने दोनों को साधु-वेश करा दिया... और महाव्रतों का आरोपरण किया।
दोनों को साधु-साध्वी के वेश में देखकर गुणमंजरी दहाड़ मारकर रो पड़ी। वह बेहोश होकर गिर पड़ी। रत्नजटी की रानियाँ उसको उठाकर दूर ले गयीं...। उपचार करके उसको सचेत किया।
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