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संयम राह चले सो शूर
३२२ ___ 'वे तो अंतर्यामी गुरूदेव हैं बेटा...। ऐसे सद्गुरू भी अनंत-अनंत जन्मों के पुण्य एकत्र हो तब जाकर के मिलते हैं - और बेटी सुंदरी तुझे एक शुभ समाचार दूं?'
'कहो माँ?' 'साध्वीजी सुव्रताजी कल ही चंपानगरी में पधारी हैं'
'ओह, साध्वीजी सुव्रताजी? मेरे परम हितकारणी... परम उपकारी... मुझे नवकार मंत्र देनेवाली... मुझे ज्ञान का प्रकाश देनेवाली... उन गुरूणीजी के दर्शन करने के लिए मैं अभी जाऊँगी... माँ!' 'हाँ बेटी, हम अब साथ ही चलेंगे। वे भी तुझे याद कर रही थीं।' 'मेरे पुण्य की सीमा नहीं है माँ...।' सुरसुंदरी की आँखें हर्षाश्रु बहाने लगी।'
'माँ... मैं भी तुझे एक शुभ समाचार दूं?' 'बोल, बेटा?'
'विद्याधर राजा रत्नजटी, तेरी पुत्रवधू के धर्मबन्धु और रक्षक - उन्हें भी दीक्षा - महोत्सव में पधारने का निमंत्रण आज दे दिया गया! वे ज़रूर आयेंगे दीक्षा-महोत्सव में!' 'बेनातट नगर मेरे माता-पिता को समाचार...?' मंजरी बोली। आज ही... अभी दूत को रवाना करता हूँ..!!!'
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