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आंसुओं में डूबा हुआ परिवार
३२१ __ 'तो माँ, हमें अनुमति दे... आशीर्वाद दे... हम संयमधर्म को स्वीकार कर के कर्मो के बंधन तोड़ने का पुरुषार्थ करें।' अमरकुमार ने माँ के चरणों में सर रख दिया । धनवती की आँखें गीली हो गयी। उसने अमरकुमार के मस्तक पर अपने दोनों हाथ रखते हुए कहा :
'बेटा, चारित्र के बिना मुक्ति नहीं है... यह बात मैं मानती हूँ। त्याग का मार्ग ही सच्चे सुख का मार्ग है। ठीक है, तुझसे अनुराग है इसलिए मैं तुझे मना करूँ... पर विघ्नभूत तो नहीं बनूँगी...!!'
'तो माताजी, हम दोनों को भी इजाज़त दीजिए... ।' दोनों पुत्रवधुएँ एक साथ बोल उठीं। गुणमंजरी का हाथ पकड़कर धनवती ने कहा : __'बेटी, तुझसे अभी चारित्र का निर्वाह नहीं किया जा सकता! बच्चे को तेरा ही दूध मिलना चाहिए... तेरा प्रेम ही मिलना चाहिए... और एक मेरे मन की बात कहूँ तुमसे?'
'कहो माँ!' अमरकुमार गद्गद् हो उठा। 'मैं और गुणमंजरी दोनों एक साथ चारित्र-जीवन अंगीकार करेंगे।' 'ओह, माँ...।' कहती हुई गुणमंजरी धनवती से लिपट गयी।
'बेटी. अपने साथ अमर के पिताजी भी चारित्र स्वीकार लेंगे! कल रात में ही मेरे उनके साथ सारी बातचीत हुई है। उन्होंने कहा मुझसे...'अमर और सुंदरी यदि चारित्र ले फिर हम तो संसार में कैसे रह सकते हैं?' पर मैंने कहा उनसे कि रहना तो पड़ेगा ही। हम को गुणमंजरी और पौत्र के लिए भी संसार में रहना पड़ेगा। पौत्र योग्य उम्र का हो जाएगा तब हम चारित्र लेंगे | मेरी बात उन्हें अँच भी गयी।
अमरकुमार, सुरसुंदरी और गुणमंजरी तीनों के हृदय धनवती पर फिदाफिदा हो उठे!
'माँ... अनंत-अनंत पुण्य का उदय हो तो तुझ जैसी माँ मिले!' अमरकुमार का स्वर गद्गद् हो गया था।
'बेटा... अनंत पुण्य का उदय हो, तब माँ को ऐसे उत्तम संतानों की प्राप्ति होती है। मुझे तो अपने पुत्र से बढ़कर बहुएँ मिली हैं | मेरे पुण्य की तो सीमा ही नहीं है! ___ 'माँ, आज ही गुरूदेव ने कहा था कि तुम्हें माता-पिता की अनुमति मिल जाएगी...।'
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