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किये करम ना छूटे
३१३ सुरसुंदरी के मन में एक विचार कौंध उठा। उसने गुरूदेव से कहा : हे कृपावान, आप कुछ दिन यहाँ चंपानगरी में बिराजने की कृपा करें। हमारे माता-पिता की अनुमति लेकर हम यथाशीघ्र आपके चरणों में उपस्थित होंगे।' मुनिराज ने सुरसुंदरी की प्रार्थना को स्वीकार किया।
राजा-रानी, सेठ-सेठानी और अमरकुमार-सुरसुंदरी वगैरह सभी नगर में लौट गये। राजा-रानी के हृदय भारी बन चुके थे। सेठ-सेठानी का दिल भी भारी हो रहा था । अमरकुमार और सुरसुंदरी का चारित्र के मार्ग पर चलने का संकल्प सुनकर उनके दिल व्याकुल हो उठे थे।
सुरसुंदरी-अमरकुमार भोजन आदि से निपटकर अपने शयनकक्ष में आये | सुरसुंदरी ने कहा :
'स्वामिन, अपने परम पुण्योदय से ही ऐसे अवधिज्ञानी गुरूदेव हमें मिल गये हैं...। हम को इस अवसर से सहर्ष लाभ उठा लेना चाहिए। पर इससे पूर्व एक महत्त्वपूर्ण कार्य यथाशीघ्र करना होगा!'
'वह क्या?' अमरकुमार के मन में आशंका उभरी।
'गुणमंजरी को शीघ्र बुला लेना चाहिए। उसके मन को पूरा संतुष्ट एवं शंका रहित करके ही हम संयमपथ पर चलेंगे।'
'मैंने मृत्युंजय को बेनातट भेजा ही है। दो-चार दिन में ही वह गुणमंजरी को लेकर लौटेगा।'
'तब तो बहुत बढ़िया! दो-चार दिन में हम अपने-अपने माता-पिता की अनुमति-इजाज़त ले लें...।' 'वह तो मिल जाएगी... इसमें इतनी देर नहीं लगेगी!' 'काफी देर लगेगी... मेरे नाथ! भावनाओं के बंधन हम ने काटे हैं, उन्होंने कहाँ काटे हैं? मेरे माता-पिता का और आपके माता-पिता का हमसे कितना गहरा अनुराग है? यह क्या हम नहीं जानते हैं? देखा नहीं...? हम जब गुरूदेव के समक्ष संयमपथ पर चलने की बात कर रहे थे, तभी उन सबकी आँखें आँसुओं से छलकने लग गयी थी!' 'पर, क्या इनकी इजाज़त लेना ज़रूरी है?'
'बिलकुल... उनके उपकारों को तो दीक्षा लेने के बाद भी भूलना नहीं है...! हम को उच्चतम संस्कार देने का महान् उपकार उन्होंने किया है। उन उपकारों का ऋण हम किसी भी क़ीमत पर नहीं चुका सकते!!!'
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