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एक अस्तित्व की अनुभूति सीमा न रही। खुद ने एक औरत से शादी की है, यह जानकर वह सहमीसी रह गयी। महारानी भी विस्मय से मुग्ध हो उठी।
'अब मैं सुरसुंदरी को बुलाता हूँ।' 'क्या वह यहीं पर है?' 'हाँ.... महाराजा खड़े हुए। वे पास के कक्ष में जाकर सुरसुंदरी को ले आये। गुणमंजरी और उसकी माँ सुरसुंदरी को देखते रहे... गुणमंजरी... खड़ी होकर सुरसुंदरी से लिपट गयी। __ 'तुमने कितनी भयंकर यातनाएँ उठायी है...! पिताजी ने सारी बातें कही है...। मैं तो सुनकर चौंक ही उठी हूँ...। ओह, नवकार मंत्र की महिमा कितनी अगम-अगोचर है...। तुम्हारे सतीत्व का प्रभाव ही अद्भुत है... सचमुच तुम महासती हो!'
गुणमंजरी एक ही साँस में सब बोल गयी। महाराजा ने गुणमंजरी से कहा : __'बेटी, तेरी शादी अमरकुमार से कर देने का मैंने और सुरसुंदरी ने सोचा है...| तुझे पसंद है ना?'
गुणमंजरी मौन रही। वह सोच में डूब गई। 'पिताजी, इस सवाल का जवाब मैं कल दूँ तो?'
"तेरी जैसी इच्छा बेटी... तु जैसे खुश रहे... सुखी हो... वैसे ही मैं करूँगा...। मेरे लिए तो तू ही बेटी है... और तू ही बेटा है!'
सुरसुंदरी सोच में पड़ गयी... 'उसने जवाब कल देने की बात क्यों कही? 'पिताजी, हम दोनों कुछ देर बात कर लें।' 'हाँ, तुम सोच लो।' महाराजा और महारानी दोनों वहाँ से उठकर दूसरे खंड में चले गये।
गुणमंजरी सुरसुंदरी के उत्संग में सिर रखकर रो पड़ी...। सुरसुंदरी उसके सिर पर हाथ रखकर उसे सहलाने लगी...| कुछ देर बीती...| सुरसुंदरी ने गुणमंजरी के चेहरे को अपनी हथेलियों में लेते हुए उसकी आँखों में आँखें डालकर पूछा :
'क्या सोच रही है मंजरी...? पिताजी ने जो कहा... वह तुझे अच्छा नहीं लगा क्या?'
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