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एक अस्तित्व की अनुभूति
२८२ उदय हुआ तो रत्नजटी जैसा विद्याधर भाई मिल गया। चार-चार भाभियाँ मिलीं... विद्याशक्तियाँ मिलीं... फिर आप जैसे पितातुल्य महाराजा मिले... गुणमंजरी मिली... और पति से भी पुनः मिलन हो गया।' __'बेटी, तेरा जीवनवृत्तांत सुनकर मेरी नवकारमंत्र के प्रति श्रद्धा सुदृढ़ बनी है... धर्म संबंधी विश्वास अविचल हुआ है।' 'पिताजी, अब एक महत्त्वपूर्ण कार्य करना है...' 'बोल बेटी... तू जो कहे वह करने को मैं तैयार हूँ।' 'गुणमंजरी को समझाना!' गुणपाल राजा पल भर के लिए गहरे सोच में डूब गये । 'उसे ऐसा महसूस नहीं होना चाहिए कि मैंने उसके साथ छलना की है। मेरी परिस्थिति, स्थिति का वह सहज स्वीकार कर ले आनंद से, तो मुझे भी खुशी होगी। यदि उसे तनिक भी दुःख होगा तो मेरी वेदना का पार नहीं
रहेगा।
"तेरी बात सही है... परंतु गुणमंजरी पर मुझे पूरा भरोसा है। वह जब तेरी कहानी सुनेगी तब तुझसे उसका प्रेम शतगुण बढ़ जाएगा। मैंने उसे बचपन से ही गुणानुराग का संस्कार घुट घुट कर पिलाया है... | मेरी बेटी गुणानुरागिणी है... उसकी तू जरा भी चिंता मत कर!'
'वह समझ जाएगी... बाद में?' 'उसकी शादी अमरकुमार के साथ करेंगे।' 'मैं भी यही सोच रही थी। हम दोनों बहनें साथ रहेंगी... साथ जिएँगी...। उसे किसी भी तरह की पीड़ा नहीं होने दूंगी!' 'वह तो मुझे भरोसा है ही।' 'तो मैं अब जाऊँ?'
'नहीं... तू थोड़ी देर रूक जा, मैं गुणमंजरी को बुलवाकर अभी ही बात कर देता हूँ...| गुणमंजरी की माँ को बुलवा लेता हूँ।' ___'तो मैं तब तक पास वाले कक्ष में बैठती हूँ। आप बात कर लें, बाद में मुझे बुला लेना।'
सुरसुंदरी पास के कक्ष में चली गयी। महाराजा ने गुणमंजरी और महारानी को बुलाकर सारी बात अथ से इति तक सुना दी। गुणमंजरी के आश्चर्य की
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