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चोर, जो था मन का मोर
अमरकुमार ने सिसकियाँ भरते हुए अपना परिचय दिया : 'महाराजा, मैं चंपानगरी के धनावह सेठ का एकलौता बेटा अमरकुमार हूँ। चंपा की ही राजकुमारी सुरसुंदरी और... मैं हम दोनों साथ-साथ ही अध्ययन करते थे। एक दिन मजाक में मैंने उसे पूछे बगैर उसके आँचल में बँधी हुई सात कौड़ियाँ ले ली और सब को मिठाई बाँटी। उसने मुझे काफी खरी-खोटी सुनायी। मैंने मौन रहकर सब कुछ सुन लिया । पर मैंने अपने मन में इस घटना की गाँठ लगा ली। फिर तो किस्मत से हमारी शादी हुई। हम परदेश जाने के लिए निकले। रास्ते में यक्षद्वीप आया। और पुरानी कीनाकशी को याद करके मैंने उसे वहाँ पर अकेली निद्रावस्था में छोड़ दिया। उसकी साड़ी के छोर पर सात कौड़ियाँ बाँधकर लिख डाला कि 'सात कौड़ियों मैं राज ले लेना।' ___ 'ओह... अरे...! उस बेचारी का क्या हुआ होगा? मुझे कैसी दुर्बुद्धि सुझी? उस द्वीप पर कोई भी आदमी नहीं मिलता था... और वहाँ का यक्ष भी बड़ा क्रूर था!!' ___ 'तो क्या तुम्हें जरा भी दया नहीं आयी... इस तरह अपनी अबला पत्नी का त्याग करते हुए?' विमलयश ने सवाल किया।
और अमरकुमार फूट-फूटकर रो पड़ा। रोते-रोते वह बोला : 'मैंने स्त्री-हत्या का घोर पाप किया है। मैंने विश्वासघात किया, धोखा दिया | मैं महापापी हूँ। वह मेरे पाप इसी भव में उदित हुए हैं आज | महाराज, मुझे आप सूली पर चढ़ा दिजिए... मुझे जीना ही नहीं है!!!'
'अमरकुमार, तुम्हारी वह पत्नी थी कैसी, वह तो बताओ ज़रा?'
'महाराजा, मैं क्या बयान करूँ? उसमें अगिनत गुण थे। रूप में तो वह उर्वशी थी... रंभा थी... मैं अपने मुँह क्या अपनी पत्नी की प्रशंसा करूँ? परंतु...' 'तुम्हें अपनी उस पत्नी की याद तो सताती होगी न?'
'पल-पल याद आती है महाराजा, उसको छोड़ देने के बाद एक भी रात ऐसी नहीं गुज़री है कि मैंने उसकी यादों में खोया-खोया रोया न होऊँ!'
'तो क्या उसको तुमसे कम प्रेम था?' 'प्रेम? वह मेरे लिए चकोरी थी... मैं उसके लिए चकोर था। हमारी प्रीत अभेद्य थी, अच्छेद थी।' 'तो फिर टूट क्यों गयी?'
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