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चोर, जो था मन का मोर
२७४ रात का प्रथम प्रहर शुरू हुआ ही था कि बुलावा आ गया। अमरकुमार पहुँचा विमलयश के कमरे में | सवा सेर घी से भरा हुआ पात्र उसे सौंपा गया । ___ 'सुनो सेठ मैं सो जाऊँ... मुझे नींद भी आ जाए... तो भी तुम अपना काम चालू रखना। चार प्रहर में इतना घी पैरों के तलवे में मल-मल कर उतार देना है!'
'जी हाँ, आपकी आज्ञा के मुताबिक करूँगा।'
विमलयश सो गया। अमरकुमार ने विमलयश के पैरों के तलवे में घी मलना प्रारंभ कर दिया। शयनकक्ष में स्वर्णदीपकों का उजाला फैल रहा था। ___ एक प्रहर बीता, दूसरा प्रहर भी समाप्त हो गया। अमरकुमार ने घी के बरतन में नज़र डाली तो अभी तो पाव भाग का घी भी कम नहीं हुआ था। वह घबरा उठा। 'ओह... भगवान! दो प्रहर तो बीत गये... केवल दो प्रहर ही बाकी हैं... अभी तो इतना सारा घी बाकी है। किसी भी हालत में इतना घी तो पैरों के तलवे में उतरने से रहा...| 'यहाँ से मेरी मुक्ति नहीं होगी। जिंदगी यहीं बितानी होगी क्या? ओह... मैं क्या करूँ? कुछ सूझता भी तो नहीं है।' __ वह खड़ा हुआ। विमलयश सिर पर कपड़ा पूरा बँक कर सोया हुआ था।
उसने बराबर ध्यान से विमलयश के चेहरे को देखा | उसने मन ही मन निर्णय किया कि, राजा तो सचमुच सो गया है। वह पुनः अपनी जगह पर बैठ गया | मन में कुछ सोचा और घी का बरतन उठाकर अपने होठों से लगाया... एक घुट... दो घुट पिये... इतने में तो विमलयश एकदम खड़ा हो गया, और अमरकुमार के हाथ पकड़ते हुए वह चिल्लाया :
'क्यों बे चोर, अब भी बोल दे कि मैं चोर नहीं हूँ। यह चोरी नहीं कर रहा है तो क्या कर रहा है? अब तेरा अंतकाल नज़दीक आ गया है!'
अमरकुमार तो डर से मूढ़-सा हो उठा... तुरंत बेहोश होकर ज़मीन पर गिर पड़ा। विमलयश ने ठंडे पानी के छींटे देकर हवा करना शुरू की। अमरकुमार ने आँखें खोलीं। डर के मारे उसका शरीर हवा से काँपते सूखे पत्ते की भाँति थर्रा रहा था। वह खड़ा हुआ... उसकी आँखो में से आँसू गिरने लगे।
'तुझे बचपन से ही चोरी करने की आदत लगती है... नहीं? तू है कौन? किस नगर का रहनेवाला है? तेरे माता-पिता कौन हैं? शादीशुदा है या कुँआरा है?'
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