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नयी कला नया अध्ययन
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'तुम लोग पाठशाला में तो नोंकझोंक करते ही रहते हो और यहां घर पर तू पहली बार आयी, तो भी यह अमर चुप नहीं रहता।'
सुंदरी ... तेरा निर्णय सुनकर मुझे तो बहुत प्रसन्नता हुई है। मैं तो चाहती हूँ : अमर भी कुछ धर्म का अध्ययन करे। मैं आज ही उसके पिता से बात करूँगी। यदि कोई ऐसे गुरूदेव मिल जाए तो अमर को भी अध्ययन करवाना शुरु कर दें ।
‘हां माताजी, आप जरूर बात करना । उसे तो मुझ से भी ज्यादा जरूरत है, धर्म के बोध की।' सुरसुंदरी बड़े ही मासूम अंदाज़ में जान-बूझकर ऊंचे स्वर में बोली।
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सुरसुंदरी अपने महल की ओर चली गयी ।
सेठ धनावह शाम को भोजन के समय घर पर आ गये। पिता-पुत्र ने साथ बैठकर भोजन किया । धनवती पास में बैठकर दोनों को भोजन करवा रही थी और वहीं उसने बात छेड़ी : 'अमर का विद्याध्ययन तो पूरा हो चुका है, अनेक कलाएँ उसने सीख ली हैं। अब... '
'अब उसे पेढ़ी पर ले जाउँ ... ताकि वह व्यापार सीखने समझने लगे।' 'नहीं... पेढ़ी पर उसकी क्या जरूरत है अभी से ? अभी तो उसे एक कला और प्राप्त करनी है । '
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'कौन-सी कला?' सेठ को आश्चर्य हुआ । अमर भी प्रश्नार्थक दृष्टि से माँ को ताकता रहा ।
'धर्म की कला ।'
'ओह!' सेठ ने अमर की ओर । अमर की नजर माँ पर थी । वह समझ गया कि यह पराक्रम सुंदरी का ही है ।
'हाँ... हाँ... धर्म की कला तो प्राप्त करनी ही चाहिए। पर सीखेगा किससे ?'
'गुरुदेव से’।
'क्यों अमर, तेरी क्या इच्छा है ? ' सेठ ने अमर से पूछा ।
'आपकी और माँ की जो इच्छा हो वही मेरी इच्छा होगी।' अमर के प्रत्युत्तर ने धनवती को आनन्द से भर दिया ।
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