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राजमहल में 'मैं पैदल चलकर ही आऊंगा।' 'पर, हम यह पालकी साथ लाये हैं, आपके लिए।'
'यह तो महाराजा की उदारता है। मेरे जैसे अनजान परदेसी राजकुमार पर महान कृपा की है। पर मैं उसमें नहीं बैलूंगा। मैं पैदल ही चलूँगा। इस बहाने बेनातट नगर की भव्यता देखने का मौका मिलेगा। आप तनिक भी चिंता न करें।
'पर महाराजा हम पर नाराज़ होंगे।' 'नहीं होंगे | मैं उनसे निवेदन कर दूंगा।'
विमलयश की शिष्ट और मिष्ट वाणी सुनकर राजपुरूष खुश हो उठे। विमलयश को साथ लेकर राजसभा में आए |
विमलयश ने महाराजा को प्रणाम किया । राजा गुणपाल तो विमलयश के सामने देखता ही रहा ठगा-ठगा सा ।
सौंदर्य छलकता गोरा-गोरा मुखड़ा... कान तक खीचे हुए मदभरे नैन.. गालों पर झूलती केश की लटें... कानों में चमकते-दमकते दिव्य कुंडल... गले में सुशोभित होता नौलखा हार... अंग-अंग में से यौवन की फूटती आभा। साक्षात जैसे कामदेव!
महाराजा गुणपाल की असीम स्नेह से छलकती आँखें विमलयश पर वात्सल्य बरसाती रही। 'ओ परदेशी राजकुमार... मैं तेरा हार्दिक स्वागत करता हूँ।'
महाराजा ने स्वयं खड़े होकर विमलयश का हाथ पकड़कर अपने निकट के ही आसन पर उसे बिठाया। __'कुमार, तेरी अद्भुत कला देखकर मैं तेरे पर मुग्ध हूँ...। प्रसन्न हूँ... और इसी प्रसन्नता से तुझे कहता हूँ कि तेरी जो भी इच्छा हो तू मुझसे माँग ले!' विमलयश की पीठ पर स्नेह से पुलकित अपना हाथ सहलाते हुए महाराजा ने कहा :
'पितातुल्य महाराजा, आपकी कृपा से मेरे पास ढेर सारी संपत्ति है। मैं क्या माँगू आपके पास?'
'कुमार, तेरे पास अपार संपत्ति है, यह तो तेरे क़ीमती वस्त्र और आभूषण हीं बता रहे हैं, फिर भी मेरा मन राजी हो इसलिए भी तू कुछ माँग।'
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