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सवा लाख का पंखा
२०७ 'क्यों नहीं? ज़रूर! यहाँ पर अनेक पथिक-शालाएँ हैं, धर्मशालाएँ हैं, पर वे सार्वजनिक हैं। तुम्हे शायद पसंद नहीं भी आएगी। वहाँ तो कभी भी, कोई भी आ-जा सकता है! हाँ, यदि तुम्हें एतराज न हो तो मेरे वहाँ पधारो...।' 'तुम्हारा परिचय?'
'मैं इस बगीचे की मालिन हूँ। इस उद्यान के दक्षिण छोर पर मेरा मकान है। हम दो पति-पत्नी ही वहाँ रहते हैं। और कभी-कभी विदेशी मेरे वहाँ आते हैं, ठहरते हैं। तुम्हारे लिए अलग कमरा दूंगी। तुम्हे मनपसंद भोजन बना दूंगी। ___ सुरसुंदरी ने अपना नाम 'विमलयश' रख लिया। उसे मालिन के घर रहना ही ज्यादा ठीक लगा। एक पेटी मालिन ने उठायी। दूसरी पेटी उठाकर विमलयश चला। ___ मालिन ने अपने मकान पर आकर एक सुंदर सुविधापूर्ण कमरा खोल दिया। विमलयश को कमरा पसंद भी आ गया।
'क्या विदेशी राजकुमार... मेरी झोंपड़ी पसंद आएगी न?' मालिन ने एक तरफ पेटी रखते हुए कहा । 'कोई असुविधा हो... कमी हो, तो मुझसे कह देना। अभी तो तुम दुग्धपान करोगे न?' 'हाँ... अब तो मुझे तुम्हें ही सब तकलीफ देनी होगी!'
'इसमें तकलीफ कैसी भाई? अतिथि का स्वागत करना तो हमारा फर्ज़ है... और तुम जैसे राजकुमार मेरे घर में कहाँ?' __ सुरसुंदरी ने दस मुहरें निकालकर मालिन के हाथों में रख दी। मालिन तो मुहरें देखकर खुश हो गयी।
'अरे... यह क्या करते हो? इतनी सारी मुहरें कैसे ले लूँ? नहीं...'
'बहन, यह तो कुछ नहीं है, रख लो, मेरे भोजन की व्यवस्था भी तुम्हें ही करनी होगी! 'अच्छा राजकुमार, तुम्हारी व्यवस्था में कोई भी कमी नहीं आने दूंगी!'
मालिन शीघ्रता से अपने घर में चली गयी। चूल्हे पर दुध गरम करने के लिए रख दिया। और लगे हाथों बाजार में दौड़ गयी। शर्करा... बादाम... इलायची... केसर वगैरह उत्तम द्रव्य खरीद लायी। दूध में वे सारे द्रव्य डालकर उसे स्वादिष्ट बनाया । धातु के एक स्वच्छ पात्र में लेकर विमलयश के कमरे में आयी। विमलयश ने दुग्धपान कर लिया।
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