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सवा लाख का पंखा
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IPL ३१. सवा लाख का पंखा HSHy
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सुरसुंदरी देखती ही रही... रत्नजटी के विमान को जाते हुए | जब तक विमान दिखता रहा... वह आकाश में ताकती रही। विमान दिखाना बंद हुआ
और सुरसुंदरी धैर्य गवाँ बैठी। जमीन पर ढेर हो गयी और फूट-फूटकर रोने लगी। भाई के विरह की वेदना से व्याकुल हो उठी। दो घटिका उसने वैसे ही बैठे-बैठे बीता दी। उसने अपने पास दो मंजुषाएँ पड़ी देखी। रत्नजटी रख गया था। एक पेटी में सुंदर क़ीमती कपड़े व गहने थे। दूसरी मंजूषा में सोना मुहरें थीं एवं पुरूष-वेश था।
सुरसुंदरी ने स्वस्थ होकर पहला कार्य रूप-परिवर्तन करने का किया । विद्याशक्ति से उसने पुरूष का रूप बना लिया और तुरंत कपड़े भी बदल लिये। पुरूष का वेश सजा दिया। स्त्री के कपड़े उतारकर मंजूषा में रख दिये।
'अब मैं बिलकुल निश्चित हूँ। दुनिया स्त्री-रूप का शिकारी है। पुरूष के रूप में मेरा शील सुरक्षित रहेगा। सचमुच, रत्नजटी की रानियों ने मुझे बड़ी अद्भुत और अनमोल भेंट दी। मैं निर्भय व निश्चिंत हो गयी हूँ। अब मैं इस नगर में रहूँगी। अमरकुमार का मिलन इसी धरती पर होनेवाला है। चाहे वह कल चला आए या पाँच बरस लगाए | कोई फर्क नहीं पड़ता। अब मुझे फिक्र किस बात की?' सुरसुंदरी विचारों में डूबी हुई वहाँ पर बैठी थी... इतने में एक प्रौढ़ उम्र की स्त्री उसके पास आयी। आकर खड़ी रही। 'लगता है तुम विदेशी जवान हो?' 'हाँ ।' 'आपका शुभ नाम बता सकेंगे?' 'विमलयश!' 'ओह... आपका परिचय देंगे? 'मेरा परिचय? मैं एक राजकुमार हूँ।' 'वह तो आपकी आकृति और आपके वस्त्रालंकार ही बता रहे हैं।'
मुझे यहाँ कुछ दिन रहना है, रहने के लिए उपयुक्त जगह मिल जाएगी क्या? कहाँ मिलेगी, क्या तुम मुझे बता सकती हो?'
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