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प्रीत किये दुख होय
१८४ _पिटारा लेकर वे राजमहल में रानी के पास गये... महारानी ने सोचा 'महाराजा आकर पिटारा खोलें, उससे पहले मैं पिटारा खोलकर उसमें से मुझे जो अच्छे लगें वे आभूषण निकालकर अलग रख दूँ! राजपुरूषों से उसने पिटारे की चाबियाँ ले लीं।
रानी ने जैसी ही पिटारा का पहला खाना खोला कि एकदम अंदर से पुरोहितजी निकले...! रानी चौंक उठी।
'यह क्या? तुम पिटारे में कैसे?' रानी ने पूछा । 'अभी और ताले खोलिए महारानी... फिर मुझे सजा करना...'
रानी ने दूसरा खाना खोला तो उसमें से सेनापति प्रगट हुए।
रानी ने तीसरा खाना खोला तो महामंत्री जी निकले... और चौथा खाना खोला तो महाराज स्वयं प्रगट हुए। सभी के चेहरे स्याह हो गये थे। रानी की आँखों में गुस्से के अंगारे दहक रहे थे। राजा ने पुरोहित वगैरह को रवाना करके रानी के समक्ष अपना गुनाह कबूल किया ।
श्रीमती को आदरपूर्वक राजमहल में बुलाकर उससे क्षमा माँगी । बुद्धिमानी एवं जीवन-निष्ठा के लिए शाबाशी दी... उत्तम वस्त्र आभूषणों से उसका सम्मान किया।
जब श्रीदत्त श्रेष्ठी परदेश से आया... श्रीमती ने सारी बात कह सुनाई... दोनों पति-पत्नी खूब हँसे... उनके पेट में बल पड़ गये।
सुरसुंदरी ने कहानी पूरी की। 'बस, औरत तो ऐसी श्रीमती जैसी होनी चाहिए।' चारों रानियाँ बोल उठीं। 'अब भोजन का समय हो गया है... मेरे भैया राह देखते हुए बैठे होंगे!'
'चलो... चलो... आज तो भूख भी जोरों की लगी है... कहानी की तरह भोजन भी खूब अच्छा लगेगा!'
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