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भीतर का शृंगार
१८३ दरवाजा खुला और महाराजा हवेली में प्रविष्ट हुए। श्रीमती ने स्वागत किया। राजा ने मूल्यवान आभूषण भेंट किये श्रीमती को। श्रीमती ने उन्हें लेकर तिजोरी में रख दिये | महाराजा की सेवा-भक्ति होने लगी। दो घड़ी का समय बीता न बीता... कि हवेली के बाहर कोई औरत दहाड़कर रोती हुई आयी। ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा खटखटाने लगी... 'ओह... श्रीमती दरवाज़ा खोल... बहुत बुरे समाचार आये हैं... तेरा पति परदेश में ही मर गया है... जल्दी दरवाजा खोल, श्रीमती!'
श्रीमती सटाक... ज़मीन पर गिर गयी... और दहाड़ मार-मारकर रोने लगी... राजा घबराया.. उसने कहा : 'पहले तू मुझे कहीं छिपा दे... फिर दरवाजा खोलना...'
श्रीमती ने पिटारे के चौथे खाने में राजा को बंद किया और ताला लगा दिया! दासी से कहा : बस, अब अपना काम निपट गया... अब हम दो घड़ी विश्राम कर लें, सुबह की बात सुबह!'
दोनों सो गयी।
सुबह-सुबह पूरे नगर में बात फैल गयी कि श्रीदत्त श्रेष्ठी परदेश में मर गये हैं...' राजा के राज्य में नियम था कि निःसंतान व्यक्ति मर जाए तो उसकी संपत्ति राजा अपने अधिकार में कर ले।
राजपुरूष राजमहल में गये | पर राजमहल में महाराजा नहीं थे। महारानी से कहा : श्रीदत्त श्रेष्ठी निःसंतान मर गये हैं... उनकी संपत्ति मँगवा लेनी चाहिए।' रानी ने राजा की तलाश करवायी... पर राजा मिलेगा कहाँ से? महामंत्री की तलाश करवायी तो वह भी नहीं मिले! सेनापति और पुरोहित की तलाश करवायी तो वह भी नहीं मिले! राजपुरूषों को बहुत आश्चर्य हुआ। रानी ने कहा : 'शायद किसी अत्यंत महत्त्वपूर्ण कार्य के लिए किसी गुप्त जगह पर गये हैं... तुम जाओ और श्रीदत्त सेठ की सारी संपत्ति मेरे पास ले आओ!'
राजपुरूष श्रीदत्त की हवेली पर पहुँचे। श्रीमती से कहा : हम सेठ की संपत्ति लेने के लिए आये हैं। ___ 'भाई... ले जाईये... सारी संपत्ति ले जाईये... सेठ पूरी संपत्ति इस पिटारे में भरकर गये हैं... पूरा पिटारा ही ले जाओ... ये इसकी चाबियाँ रहीं!'
राजपुरूष पिटारा उठाने गये... तो पिटारा काफी वजनदार लगा... वे खुश हो उठे! ज़रूर... पिटारे में ढेर सारी संपत्ति होगी!'
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