________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
फिर वही हादसा
११५
फानहान ने सुरसुंदरी को नये कपड़े दिलवाकर कहा : 'पहले तू कपड़े बदल ले।' सुरसुंदरी जहाज़ के एक कमरे में जाकर कपड़े बदल आयी । उसका पूरा शरीर चोट के मारे दर्द कर रहा था । फानहान ने परिचारिका के साथ गरम दूध भेजा । सुरसुंदरी ने दूध पी लिया और वहीं जमीन पर सो गयी। एक प्रहर बीता। उसकी नींद खुली।
फानहान ने कमरे में प्रवेश किया। उसके पीछे ही परिचारिका ने प्रवेश किया, भोजन का थाल हाथ में लेकर ।
'सुंदरी, तू यह भोजन कर ले।' फानहान सुरसुंदरी के अदभुत रूप से मुग्ध हुआ जा रहा था। उसने तो सुरसुंदरी के सौंदर्य को देखकर ही सुंदरी कहकर बुलाया था। पर सुरसुंदरी को अनजान युवान व्यापारी के मुँह से अपना नाम सुनकर आश्चर्य हुआ ।
'तुम्हें मेरा नाम कैसे मालूम हुआ? मैंने तो तुम्हें अपना नाम बताया नहीं है । '
'अरे वाह! क्या लाजवाब बात है तेरी । तेरी यह हूर सी खूबसूरती ही तेरा नाम जो बता रही है... सुंदरी!' व्यापारी ने हँसते हुए कहा। उसके हास्य में धूर्तता थी। सुरसुंदरी सावधान हो गयी ।
'बातें तो बाद में करनी ही हैं... पहले तू खाना खा ले ।'
'नहीं, मुझे खाना नहीं खाना है ।'
'कब तक तू इस तरह भूखी रहेगी?'
‘जब तक रह सकूँगी तब तक !' सुरसुंदरी ने नीची नजर रखते हुए जवाब दिया ।
'क्यों भूख से मर रही हो? देख, तुझे मनपसंद हो वैसा भोजन है, फिर भी तुझे यदि ये चीजे पसंद न हों,
तो मैं दूसरी चीजें बनवा दूँ, पर तुझे भोजन तो करना ही होगा ।'
सुरसुंदरी को क्षुधा तो लगी ही थी । व्यापारी ने काफी आग्रह किया तो उसने भोजन कर लिया। उसकी थकान दूर हुई । फानहान चला गया । सुरसुंदरी को रहने के लिए एक अलग कमरा दे दिया था फानहान ने ।
सुरसुंदरी एक स्वच्छ जगह पर पद्मासन लगाकर बैठ गयी और उसने श्री नमस्कार महामंत्र का जाप चालू किया। एक प्रहर तक वह जाप करती रही :
जहाज़ बेनातट नगर से रवाना हो चुका था । समुद्रयात्रा चालू हो गयी थी । सुरसुंदरी खिड़की के पास जाकर खड़ी रही : यह वही महासागर था जिसमें
For Private And Personal Use Only