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समुंदर की गोद में
'आप कैसी बातें कर रहे हैं? क्या हो गया है आज आपको? आदमी की जिंदगी में गलती तो होती ही रहती है...। भूल कौन नहीं करता? पर इससे क्या गलती करनेवाले अपनों को छोड़ दें? यदि इस तरह छोड़े तब तो फिर कोई संबंध टिक ही नहीं सकेगा? क्या कल मेरी गलती नहीं हो सकती? और फिर वह मेरा त्याग कर दे तो? स्वजनों की भूलों को तो परस्पर सह लेना चाहिए। यही एक सुखी व स्वस्थ जीवन जीने का तरीका है।'
'पर कब तक सहन करें? सहने ही सहने में जवानी को जला देना क्या? सुख भोगने के अवसर मिले तो भी उससे लाभ न उठाना, कहाँ तक बुद्धिमानी की बात होगी?' 'अपने प्रेमी के प्रहार सहने में भी जिंदगी का एक मजा होता है, मेरे भाई।'
सुरसुंदरी ने 'भाई' शब्द पर भार रखा | धनंजय को यह संबोधन अच्छा नहीं लगा। वह बोला :
'यह प्रहार तो जानलेवा हैं सुन्दरी । सहन करने की भी हद होती है। हाँ, अन्य कोई प्यार करने या देनेवाला न हो तब तो ठीक है सहन किया कर, पर जब प्रहार करनेवाले प्रेमी से भी ज्यादा प्यार करनेवाला स्नेही मिल जाए तो उसको अपना लेना चाहिए।'
'भैया... इसलिए तो तुम्हारे साथ आयी हूँ।'
'भैया' शब्द को नजरअंदाज करते हुए धनंजय खुशी में पागल हो उठा। 'क्या कहा? तो क्या तू मुझे अमर से भी ज्यादा चाहने लगी हो? क्या तू मुझे प्यार करती हो? अरे, मैं तो धन्य हो गया आज!' धनंजय अपने आसन पर से
खड़ा होकर सुरसुंदरी के समीप आकर खड़ा हो गया। ___ 'मैं तुम्हें भाई के रूप में चाहती हूँ... क्या भाई-बहन का प्यार वह प्यार नहीं हैं?'
'पागलपन की कैसी बात कर रही है? तु मुझे भाई मानती होगी... मैं तुझे बहन नहीं मान सकता । मैं तो तुझे केवल मेरी प्रियतमा के रूप में देख रहा हूँ... सुंदरी! ये सब सुख-सुविधा इसलिए तो तेरे लिए उपलब्ध करा रहा हूँ।'
धनंजय के इन शब्दों ने सुरसुंदरी को चौंका दिया। वह सावधान हो उठी। उसकी आँखों में से कोमलता गायब हो गई। फिर भी उसने संयत शब्दों में कहा :'तुमने मुझे वचन दे रखा है, क्या भूल गये उसे?'
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